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________________ उसमें उत्पन्न होते हैं। जैसे चावल में चावल जैसा लंबा और सफेद कीडा होता हैं। चने में चने जैसे गट्टे जैसे जीव होते हैं। इसतरह शासन में शासन के ही जीव शासन का नाश करेंगे। परमात्मा की बात सुनकर भरत महाराजा को इहलोकभय उत्पन्न हो गया। जहाँ स्वयं अभयदयाणं बिराजमान हो वहाँ भय टिक सकता हैं क्या? ऋषभ दादा ने भरत महाराजा के मस्तक पर हाथ रखकर उन्हें भयमुक्त किया। आज हम भी पररमात्मा के चरणों पर मस्तक रखकर भयमुक्त हो जाए। दूसरा हैं परलोकभय अर्थात् दूसरी जाति के जीवों से भयभीत होना जैसे मनुष्यका देव और तीर्यंच से भयभीत होना । तीसरा हैं आदानभय । आदानभय अर्थात् स्वयं के वस्तु या पदार्थ की रक्षा के लिए चोर आदि से भयभीत होना। हमारे स्वयं के मानेजानेवाले पदार्थ या वस्तु अन्य कोई चोरी करके ले जाएगा ऐसी कल्पना से भयभीत हो जाना। दान अर्थात् स्वयं की वस्तु को स्वयं के हाथ से सामनेवालों को आवश्यकतानुसार देना उसका नाम दान हैं। सामनेवाले की आवश्यकतानुसार हम न दे सके तब हमारा ध्यान चुकाकर चीज, वस्तु को उठा लेना आदान कहलाता हैं। दान में हम हमारी इच्छा से देते हैं और आदान में हम देते भी नहीं और हमारी देने की इच्छा भी नहीं होती हैं फिर भी याचक ले लेता हैं। ऐसे आदान की दहशत से भयभीत होना आदानभय हैं। एकबार हम मुंबई में थे। तब उपाश्रय के सामने एक मकान की चौथी मंजिलपर एक परिवार रहता था। एकबार उनके घर में सारी रात टूबलाईट चल रही थी और टी.वी. चलने की भी आवाज आ रही थी। कई बार गोचरी की भावना भाने से हम सुबह उनके यहाँ गए। देखा तो दरवाजेपर ताला लटक रहा था। दोपहर को श्रावीका बहन दर्शनार्थ आयी तब खुलासा हुआ कि चोरी के भय से वे हमेशा बाहर जाते समय लाईट और टी.वी. चालु रखकर जाते हैं ताकि चोर आदि को ऐसा लगे कि घर में कोई हैं। यह हैं आदानभय । चौथा हैं अकस्मातभय। भय के कारणों के अतिरिक्त आत्मा की निर्माल्यता हो तब स्वयं की कल्पना से भयभीत होना। जैसे घर में कोई जीव न हो परंतु अंधेरे में डोरी को देखकर उसे सर्प मान लेना अकस्मातभय हैं। इस भय में बाह्य निमित्त नहीं होते हुए भी स्वयं की आशंका से भयभीत होता हैं । पांचवा है आजीविका भय। दुष्काल आदि के समय में जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त पदार्थों की अप्राप्ति दुर्विकल्प से भयभीत होना अजीविकाभय हैं। आलोकभय आदि अन्य सर्व भयों 'अपेक्षा अजीविकाभय लोभसंज्ञा का कारण बनकर भय परिणाम प्रगट करता हैं। छट्ठा हैं मरणभय । लोक के सभी जीवों को यह भय समान होता हैं। चाहे गेस से ही छाती में दर्द होता हो और डॉक्टर कार्डीओग्राम का कहे तो जो भय लगता हैं वह मरणभय हैं। ये सारे भय मिथ्यात्त्व के कारण ही होते हैं। इसलिए कहते हैं कि मिथ्यात्त्वि को मृत्यु का भय होता हैं और सम्यक्त्वि को जन्म का भय होता हैं। हमारी आत्मा जन्म और मृत्यु से पर हैं। जन्म और मृत्यु पर्याय मात्र हैं। सातवां भय अपयश भय हैं। जो सबसे बड़ा भय हैं। यश और किर्ती पाने के लिए होता हैं। पर अपयश अनायाश हो जाता हैं। अपयश के भय से बचने के लिए उवसग्गहरं स्तोत्र की आराधना का कथन लोक में प्रसिद्ध 137
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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