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________________ चाहिए? हे शुद्धस्वरुपा ! जैसे हम हैं वैसे ही आप हो। हमारे और आपके भीतर कोई अंतर नहीं है। भगवान पूछ रहे हैं बोलो आपको क्या चाहिए ? क्योंकि भगवान पधारे तो कुछ दिए बिना जाते नहीं हैं और ऐसा देते हैं जो जगत् में और कोई दे भी नहीं सकता। दिए बिना जावे तो भगवान नहीं और लिए बिना जावे तो भक्त नहीं। भगवान कहते हैं, मृगावती ! तुम्हारी विशुद्ध पर्याय में आ जाओ। भीतर झांखो न तुम स्त्री हो न पुरुष । न गुरु हो न शिष्य। तुम किसी भगवान की भक्त नहीं तुम स्वयं भगवान हो । सहज शुद्ध निजानंद स्वरुप हो । अनुभूति करो अपनी विशुद्ध पर्याय की । आओ तुम्हारे सहज शुद्ध स्वभाव में जहाँ हम और आप एक ही स्वरुप के है उसका अनुभव करो। मृगावती ने प्रभु चरणों मे मस्तक रखकर कहा, नमोत्थुणं लोगपज्जोयगराण । ओर कुछ कहने की आवश्यकता न समझी। बस एकही धून, एक ही चिंतन जबतक स्वयं में अंधकार महसूस हुआ तबतक यह धून चलती रही। धीरे धीरे धून में लय, लय में देवालय, देवालय में जिनालय, जिनालय में सिद्धालय, सिद्धालय में स्वविलय होते ही स्वयं में उद्योत हुआ। जगत् में उद्योत हुआ। तीनों लोक के तीनों काल की समस्त पर्याय प्रगट हो गई। केवलज्ञान प्रगट हो गया । गुरुकृपा मानकर साध्वी चंदना जी को प्रणाम करने के लिए उठने लगी तो देखा गुरुणी के पास से एक काला सर्प गुजर रहा था। अतः गुरुणी जी का हाथ उठाकर स्थानांतर किया। गुरुणी देह पर्याय में सोयी थी पर चेतना में जाग्रत थी । कृष्णपक्ष की चौदस की रात चारो ओर अंधकार है। मेरी काया का स्पर्श किसने किया और क्यों किया? ऐसा सोचकर सहज स्पर्श से बोधान्वित साध्वी चंदनाजी ने पूछा - कौन हो ? • साध्वी मृगा । हाथ का स्पर्श क्यों किया ? यहाँ से एक काला फणीधर गुजर रहा था। आपने अंधेरे में कैसे देखा ? आपकी कृपा से । क्या आपको ज्ञान हो गया है ? आपकी कृपा । प्रतिपाति या अप्रतिपाति ? आपकी कृपा से अप्रतिपाति । हा ? तो क्या मैं ने केवलिभगवान की अशातना की ? छदमस्थ गुरु खडे हो गए। शिष्या फिर भी केवलिभगवान के चरणों में मस्तक रखा। दोनों आमने सामने हो गए। शिष्या गुरुणी का हाथ पकडकर उन्हें उठा लेती हैं। शिष्या ने गुरु का हाथ पकड़ा हैं। गुरु पश्चाताप कर रहे हैं। मैं ने केवलि की अशातना की ? केवलज्ञान कब हुआ होगा? कहीं समवसरण में प्रभु की देशना सुनते हुए तो ? यदि मैं जानती तो उपालंभ ना देती ? पश्चाताप करते हुए साध्वी चंदनाजी को भी केवलज्ञान हो गया । अहो धन्य प्रभु ! धन्य आपकी देशना । धन्य प्रभु का शासन ! धन्य प्रभु का शरण ! धन्य प्रभु का समवसरण ! -126
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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