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________________ लोगपज्जोयगराणं का जाप करके प्रभु को आमंत्रित करती हैं। परमात्मा ! मैं ने आपके नियमों का उल्लंघन किया हैं। सद्गुरु की आज्ञा का उल्लंघन किया हैं। संयम का स्वीकार करते समय आपने कहा था, गुर आज्ञा में रहना। संयमभाव में विचरना। प्रभु ! मैंने आपकी बात मानी नहीं । साध्वी मृगावती को गुरु आज्ञा का कितना महत्त्व है। सद्गुरु की आज्ञा के बिना देशना फलती नहीं हैं। इतना ही नहीं परंतु कहा हैं - गुरु रह्या छदमस्थ पण विनय करे भगवान । केवलज्ञान होने के बाद भी शिष्य गरु की सेवा करता हैं। गुरु को नमस्कार करता है। पता लग जाने के बाद गुरु केवलि भगवान को नमस्कार नहीं करने देते हैं। बाकी एक बार तो शिष्य अपना मस्तक झुका ही देता है । लोगपज्जोयगराणं प्रगट होते हैं तो क्या देते हैं ? नमोत्थुणं की एक ही शर्त हैं - जो परमतत्त्व में हैं वह साधक में प्रगट कर देना । परमतत्त्व भी यही कहते हैं जो पूर्णत्त्व मुझमें हैं ही पूर्णत्त्व तुझ में हैं। यह पूर्णत्त्व जो प्रगट करता है वह नमोत्थुणं हैं। परमात्मा भी हमें देने के लिए उत्सुक है। उनका तो जन्म ही जगत् के जीवों को मोक्ष ले जाने के लिए होता हैं। स्वयं के मोक्ष के पूर्व ही एक दो को नहीं अनेकों को मोक्ष में पहुंचा देते हैं। लोड का लोड मोक्ष में जाता हैं । तीर्थंकर बनने के तीन जन्मपूर्व हाथ में पानी का ग्लास लेते ही असंख्य जीव दिखाई देते है । तब इनको होता है कि मेरा चले तो इन सब को उठाकर मोक्ष में रख दू । ऐसी परम अहेतुकी करुणावाले प्रभु सवि जीवकरुशासनरसिक भावना के कारण यह जन्म धारण करते है। यहाँ मृगावतीजी के लोगपज्जोयगराणं के जाप चालु हैं। समवसरण में बिराजमान भगवान महावीर भक्ति में आसीन साध्वी मृगावती जी के पास पहुंचते हैं। उसके अत:करण में पधारते हैं। प्रभु के आगमन की अनुभूति मृगावती अत्यंत कोमलभाव से कहती है, प्रभु! मुझे क्षमा करो। आप मुझे क्षमा करोगे ? तो ही गुरु मुझे क्षमा करेंगे। गुरु की क्षमा पाने के लिए प्रभु की कृपा आवश्यक है । पश्चाताप और क्षमा, आज्ञा और देशना इसतरह सबका तालमेल बराबर जम गया। प्रभु ने कहा, वत्सा! स्व में प्रवेश करो। परमतत्त्व के वचनामृत सुनकर मृगावती सोचती हैं मैं कहाँ हूँ । समवसरण में या उपाश्रय में? परमात्मा ने कहा, मृगा! तुम न समवसरण में हो न उपाश्रय में, तुम हो केवल तुम्हारे आत्मा में, तुम्हारे अंत:करण में। अभीतक तुम मेरे समवसरण में आती थी। आज तो तुम्हारा पावन अंत:करण ही समवसरण बन गया है। मृगावती के हृदय सिंहासन में प्रभु बिराजमान हो गए। प्रभु ने कहा, वत्सा ! जहाँ पाप का पश्चाताप और पूर्वका होता है वहाँ हमें पहुंचना पडता है। सूर्यो से भी अधिक प्रकाशमान और अनेक चंद्रो से भी निर्मल परमात्मा को अपने अंत:करण में प्रत्यक्ष देखकर साध्वी मृगावती आनंदित हो गई। अपलक नेत्रों से प्रभु को देखने लगी। देखती रही, देखती रही, देखती ही रही। प्रभु ने कहा, आर्या ! आपको क्या चाहिए ? उस दिन आप समवसरण में आए रात होने की आपको खबर न हो पायी अत: गडबड हो गयी परंतु अब आपको समवसरण में नहीं आना पडेगा। अब स्वयं समवसरण आपके पास हैं । जहाँ जहाँ आप वहाँ वहाँ समवसरण और जहाँ जहाँ समवसरण वहाँ वहाँ हम। बोलो आपको क्या 125
SR No.032717
Book TitleNamotthunam Ek Divya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherChoradiya Charitable Trust
Publication Year2016
Total Pages256
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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