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________________ गुप्तिमें कायगुप्ति से शुरु करेंगे । पिंडस्थ-पदस्थ ध्यान । काउसग्गमें इरियावही सूत्र स्पष्ट करके देखेंगे । स्थान-वर्णादि, छ: आवश्यक प्रेक्टीकल करेंगे । साधनाको सैद्धांतिक रूप देकर प्रेक्टीकल बनायेंगे । प्रभुका अनुग्रह, सद्गुरु की आशीष, साधनाका उत्साह - इस त्रिकोण से सफलता मिलती ही हैं । • भगवानका अनुग्रह हमेशा चालु ही हैं । 'व्यक्त्या शिवगोसौ, शक्त्या जयति सर्वगः ।' - उपा. यशोविजयजी तीर्थंकर तो प्रसन्न हैं ही, किंतु उसमें रहा हुआ 'मैं' शब्द महत्त्वपूर्ण हैं । __ हम तीर्थंकर की कृपा झेल नहीं सकते । उसका कारण मनोगुप्तिका अभाव हैं । विचार की चादर पर अनुग्रह झेला नहीं जा सकता । निर्विचार - वैशारद्ये अध्यात्म - संप्रसादः । - पतंजलि । • पहली साधना निर्विचार की होगी । • अनेन विना द्रव्यक्रियाः तुच्छाः । भावक्रिया बनानी हो तो प्रणिधानपंचक समझना पड़ेगा। दोपहर को समझेंगे । • अभी कायगुप्तिसे शुरु करके वचन-गुप्तिमें जायेंगे । हम भाग्यशाली हैं, पूज्यश्रीने यहां अंत तक निश्रा दी । पूज्यश्रीके ओरा का लाभ मिलेगा । ऐसे सद्गुरु के बिना सीधा साधनाको उठाना मुश्किल हैं । पूज्यश्री पधारे वह कृपा । रुके वंह महाकृपा । गुप्तिका मतलब बीचमें आत्मोपयोगका स्थिर होना । काया के कंपन के बीच आत्मोपयोगमें रहना वह ईर्यासमिति । वचन कंपनके बीच आत्मोपयोगमें रहना वह भाषासमिति । गोचरी के समय आत्मोपयोगमें रहना वह एषणासमिति । लेते-रखते समय आत्मोपयोगमें रहना वह आदान-निक्षेपणा समिति । कहे। 8_ AAAAAAAAAAAAAA R9
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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