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________________ जिन-भक्ति तो मानो पूज्यश्री का जीवन पर्याय बन गया हो ऐसा प्रतीत होता है । परमात्म-तत्त्व जड़ की तरह निरा निष्क्रिय तत्त्व नहीं है। वे वीतराग तो हैं ही, परन्तु साथ ही साथ करुणा-रहित है, ऐसा नहीं है। करुणावान् एवं कृपालु भी इतने ही हैं और इसलिए सक्रिय हैं - इस बात को पौनः पुन्य से छूटते अपने जीवन की घटती प्रत्येक घटमाल में परमात्मा की सक्रियता निहित है । जिस प्रकार पुत्र की प्रत्येक गति-विधि में मां का हस्तक्षेप है इस प्रकार अपने जीवन में परमात्मा का अस्तित्व है। नाम - स्थापना - द्रव्य - भाव के रूप में परमात्मा सदा विद्यमान हैं। 'नाम ग्रहंता आवी मिले, मन भीतर भगवान' यह पूज्यश्री का मनमाना विशेष नारा गिना जाता है। नाम के रूप में परमात्मा आज भी विद्यमान हैं । परमात्मा का नाम स्वयं मन्त्र-तुल्य है । आपकी कोई भी समस्या परमात्मा के नाम से निर्मूल हो सकती है। पूज्यश्री की वाचना में प्रतिदिन यह बात तो आये आये और आये ही। अतः जिस वस्तु का हमें हमारे पूज्य तारणहार गुरुदेवश्री के जीवन में निरन्तर अनुभव होता था वह बात यहां भी मिलती होने से अधिक आकर्षण होता था । इसके अतिरिक्त भी पूज्यश्री की वाचना में अनेक केन्द्रीभूत तत्त्व थे। वाचना के आरम्भ बिन्दु में स्वयं परमात्मा, गणधर भगवन् और उनकी परम्परा को आज तक लाने वाले आचार्य देव आदि पूज्य तत्त्वों का स्मरण नित्य रहता था । अतः अपनी बात का अनुसन्धान स्वयं परमात्मा हैं यह बात वे 'डायरेक्टली' अथवा 'इन्डायरेक्टली' पुष्ट करते थे । वाचना में नई-नई अनुप्रेक्षा की स्फुरणा जब स्फुट होती तब मान-कषाय का तनिक भी आंटा देखने को नहीं मिलता था प्रभुने कृपा करके मुझे यह सुझाया,
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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