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________________ इस तरह बताया यह कहकर स्वयं को परमात्मा से सतत अनुगृहीत प्रदर्शित करते । पूज्यश्री की वाचना की सर्वाधिक ध्यानाकर्षक बात यह देखने को मिलती कि कोई भी बात बिना प्रमाण के नहीं रखते । श्री भगवतीजी, श्री पन्नवणाजी, श्री ज्ञानसार, श्री योगसार, श्री अध्यात्मसार की या भक्तामर, कल्याणमन्दिर की पंक्तियाँ देकर ही सन्तोष मानते... इससे भी विशेष बात यह रहती कि संस्कृत-प्राकृत के पाठों को गुजराती भाषा के स्तवनों आदिमें से भी प्रस्तुत किये बिना नहीं रहते थे । इसके लिए श्री देवचन्द्रजी म., श्री आनंदघनजी म., श्री यशोविजयजी म. की रचनाएं पूज्यश्री को विशेष पसन्द थी । इसके अतिरिक्त जिस ग्रन्थ की वाचना देते उस ग्रन्थ के स्वयिता के प्रति पूज्यश्री भारी बहुमान एवं आदर बारबार व्यक्त करते थे । उसके पीछे पूज्यश्री की मान्यता थी कि उससे अपना क्षयोपशम बढता है । वाचना में पूज्यश्री की दृष्टि अत्यन्त ही विचक्षण रहती और वाणी जल के प्रवाह की तरह सरल एवं सरस बहती... हमें यही लगता कि बस मानो बहते रहें, बहते ही रहें । पूज्यश्री की वाचना को शब्दस्थ एवं पुस्तकस्थ करने का कार्य करनेवाले आत्मीय मित्र पंन्यास श्री मुक्तिचन्द्रविजयजी म. । पंन्यासश्री मुनिचन्द्रविजयजी म. का बहुत-बहुत आभार... खंत एवं घोर श्रममय इस कार्य को करते हुए दोनों मित्रों को आंखों से देखा है एक पत्रकार की अपेक्षा भी अधिक तीव्रता से लिखना और उसके बाद तुरन्त उसका संमार्जन एवं 'प्रेस कोपी' करानी यह
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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