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________________ जितने रहस्यमय शास्त्र हैं, उन अध्यात्म शास्त्रों में 'आचारांग ' प्रधान है । * कर्म सुख दें तो भी विश्वास न करें । पुन्य के विश्वास पर भी रहने जैसा नहीं है । कर्म कब धोखा दें, यह कहा नहीं जा सकता । साधन का भी अभिमान नहीं करना है । उपशम श्रेणि पर चढ़े हुए श्रुतकेवली भी अनन्त काल के लिए निगोद में जा सकते हैं, गये हैं । * चार जिनों (नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव - जिन) में इस समय भाव - जिन ही नहीं हैं । शेष तीनों की बराबर आराधना करें तो भाव-जिन मिलेंगे ही । * अर्थी अर्थात् केवल अभिलाषी ही नहीं, तीव्र अभिलाषी । रोग नष्ट करने की तीव्र इच्छा हो वैसे रोगी का ही 'केस' वैद्य हाथ में लें । उस प्रकार तीव्र अर्थी ही यहां अधिकारी गिना गया है । अर्थी वह कहलाता है जो सामने से ढूंढ़ता हुआ आये । हमें लाखों के समूह एकत्रित करके उनके मध्य जाना नहीं है । लोग ढूंढ़ते हुए आयें तब अभिलाषा प्रतीत होती है । कल ही यह बात होनी चाहिये थी, परन्तु पृष्ट उलट जाने से बात रह गई । कोई चिन्ता नहीं । इसमें भी कोई अच्छा ही होगा । अधिक छानबीन होनी होगी । यह चैत्यवन्दन जिसे अचिन्त्य चिन्तामणि लगे वह सच्चा अर्थी है । हरिभद्रसूरिजी को अचिन्त्य चिन्तामणि लगा था । हमें लगता है क्या ? लाखों भवों में एकत्रित किये हुए कर्मों से आये हुए दुर्भाग्य, दुर्गति आदि को उड़ा देने वाला यह चैत्यवन्दन है । ऐसा चैत्यवन्दन होते हुए भी विधि न अपनाई जा सके तो दुष्प्रयुक्त औषधि की तरह वह अकल्याणकर बनेगा । एक ही चैत्यवन्दन यदि लाखों, करोड़ो भवों के कर्मों को उड़ा देता हो तो आप साधु तो नित्य सात-सात चैत्यवन्दन करते हैं, कितने भाग्यशाली हैं ? क्या चैत्यवन्दन विधिपूर्वक होता है ? ( कहे कलापूर्णसूरि- ३ wi ० ४५
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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