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________________ BESRI MINSUMANITARANASIRAM MARRERNORNORRRRRRRRREE प्रभु दर्शन में लीनता, कोइम्बत्तूर, वि.सं. २०५३ Memomsonance २३-७-२०००, रविवार श्रा. कृष्णा -७ * हमारे पास इस समय न तो तीर्थंकर हैं, न गणधर हैं या नहीं हैं पूर्वधर । आज हमारे पास दो ही आधार हैं - जिनमूर्ति एवं जिनागम ! जिनागम बोलते हुए तीर्थंकर हैं, जिनमूर्ति मौन तीर्थंकर हैं । मूर्ति भी भगवान हैं । 'चउव्विह जिणा' में स्थापना के रूप में मूर्ति भी भगवान हैं । भाष्य में हम यह पढ़ ही चुके हैं । ऐसे जिनागमों का एक भाग आवश्यक सूत्र हैं। उनमें से एक सूत्र (नमुत्थुणं) की टीका यह 'ललित विस्तरा' है । छ: आवश्यकों में प्रथम सामायिक साध्य है । सामायिक के द्वारा समता मिलती है । समता के आनन्द की झलक के बिना मोक्ष के आनन्द की कल्पना कैसे कर सकेंगे ? सामायिक के परिणाम बहुत दुर्लभ हैं, परन्तु निराश मत होना । उसे लाने वाले अन्य पांच 'चउविसत्थो' आदि पांच आवश्यक हैं । 'आचारांग' का अधिकारी कौन है ? शीलांकाचार्य लिखते हैं - जिसने आवश्यक सूत्र, सूत्र, अर्थ तदुभय से भावित किये हुए हैं, जिसने सूत्रों के जोग कर लिए हैं, वह (साधु) इसका अधिकारी है । वही इसके रहस्य समझ सकेगा । (४४666666666666666666660 कहे कलापूर्णसूरि - ३)
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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