SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऐसा इस दुर्बल देह में क्या देखा ? भगवान आज भी है, परन्तु कहां है ? ऐसे आचार्य भगवंत (दीक्षा पर्याय में कोई मुझ से बड़े भी होंगे) ऐसे उद्गार निकालें तब मुझे समझना पड़ेगा कि जैन-शासन अद्भुत है । एकता का यह वातावरण अलग होने के बाद भी जाने वाला नहीं है, चालु ही रहेगा । भगवान आज भी हैं, परन्तु कहां हैं ? वे प्रत्येक घट में बसते हैं, परन्तु हम ही सामने नहीं आते । भगवान की यह मूर्ति क्या मात्र मूर्ति है ? क्या यह नवकार मात्र अक्षर हैं । यह तो साक्षात् सर्वज्ञ एवं सर्वग भगवान हैं । उस चतुर्विध संघ में भी भगवान क्यों न हों ? देखने के लिए आंख हों तो प्रत्येक सदस्य में भगवान दिखाई दें । यह दृष्टि विकसित करने के लिए आप प्रयत्नशील बनें । इस धर्मशाला मे अनेक व्यक्तियों का योगदान (भाग) है। अब इसका सदुपयोग कितना सुन्दर हो रहा है ? आप देख रहे हैं न ? लाभ लेने वाले को कितना पुण्य हुआ यह दिखाई देता है न ? इस धर्मशाला के निर्माण में आपका कोई बाकी हो तो दिल खोलकर आप इसमें सहयोग दें । दबाव से दो तो टैन्शन कहलाता है। भाव से करो तो दान कहलाता है । जिनवाणी का अमृत पान करने के लिए हम गुरु-भगवंत को बुलाते हैं; तो जिनवाणी श्रवण करके गुरु का समागम सफल करें । (अम्बाबेन वेलजी मलूकचन्द की तरफ से चातुर्मास फण्ड में ११ का दान दिया गया है। मुख्य दाता के रूप में उनका बिरुद है।) धीरुभाई शाह (अध्यक्ष : गुजरात विधान सभा): पूज्य आचार्यश्रीयों के कहने के बाद मेरे लिए कुछ कहने का नहीं रहता, क्योंकि मैं गुजरात विधानसभा का अध्यक्ष हूं । परन्तु यहां धर्म संसद है, जिसके अध्यक्ष (पूज्यश्री) यहां (३२०0000 00000 कहे कलापूर्णसूरि - ३
SR No.032619
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 03 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy