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________________ मंत्रियों की बात सुन, राजा प्रजापाल ने दूत की बात मान ली और कंधे पर कुल्हाड़ी रख, पैरों से चलते हुए श्रीपाल के शिविर में पहुंचे। उन्हें आते देख, श्रीपाल ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। उनसे कुल्हाड़ी रखवाकर उत्तम वस्त्राभूषण पहनाकर सभामण्डप में ले गये। उसी समय मैनासुन्दरी वहाँ आई । उसने प्रजापाल को प्रणाम कर कहा—पिताजी! मेरी बातें याद करें। कर्म ही प्रधान है। देखो, कर्मयोग से मुझे जो पति मिले थे, उन्होंने अब कैसी उन्नति की है । इतना कह मैासुन्दरी ने राजा प्रजापाल से श्रीपाल का परिचय कराया। उन्होंने गद्गद होकर कहा— कुमार ! आप गंभीर और गुणवान होने के कारण स्वयं अपना परिचय नहीं दिया। आपकी सुखसम्पत्ति और वीरता देखकर मुझे अत्यन्त आनंद हो रहा है । श्रीपाल ने कहा- राजन् ! यह सब नवपद का प्रताप है। समूचे नगर में यह बात बिजली की तरह फैल गई कि उज्जयिनी को घेरा डालने वाला कोई शत्रु नहीं, यह राजा का जामाता है। यह सुनते ही राज दरबार में रानियां, पूरा परिवार, श्रीपाल और मैनासुन्दरी को देखने के लिए शिविर में पहुंचे। आनन्दपूर्वक एक-दूसरे से मिले-जुले । सुरसुन्दरी नटी के रूप में आनन्द में वृद्धि करने के लिए श्रीपाल ने एक नाटक खेलने की आज्ञा दी । आज्ञा मिलते ही नाट्यदल तैयार हो गया । किन्तु नाटक के पहले ही दृश्य में जिस नटी का अभिनय था वह बार-बार कहने पर भी तैयार नहीं हुई। काफी देर तक समझाने बुझाने पर साधारण वेश पहनकर रंगमंच पर पहुंची। उस नटी ने रंगमंच पर अभिनय आरम्भ करने के पहले एक दोहा कहा— कह मालव कह शंखपुर, कह बब्बर कह नट्ट । नाच रही सुरसुन्दरी, विधि अस करत अकाज ।। नटी के मुंह से यह सुनते ही प्रजापाल विचार करने लगा - -अरे! सुरसुन्दरी तो मेरी वही पुत्री है जिसकी मैंने शंखपुर के राजकुमार अरिदमन से शादी की थी। वह यहाँ कहाँ? प्रजापाल ने ध्यान से नटी की ओर देखा। देखते ही समझ गया कि यह नटी सुरसुन्दरी ही है। वह तुरंत रंगमंच से उतरकर अपनी माँ के पास पहुंची। बहुत रोयी। माँ ने उसे आश्वासन दिया। माँ ने पूछा—बेटी यह स्थिति कैसे हुई ? सुरसुन्दरी ने अपनी राम कहानी सुनाते हुए माता-पिता से कहा- आप लोगों धूमधाम से शादी कर मेरे पति के साथ मुझे विदा किया। हम सकुशल शंखपुर पहुंचे। किन्तु उस दिन नगर प्रवेश का मुहूर्त न मिलने के कारण हम नगर के बाहर एक बगीची में रुक गये । दुर्भाग्यवश मध्यरात्रि के समय डाकुओं ने हमारे डेरे पर छापा मारा। आपके दामादजी तो प्राण लेकर न जाने कहा चले गये और डाकुओं कर्म-दर्शन 259
SR No.032424
Book TitleKarm Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchan Kumari
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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