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________________ हाथों में पड़ गई। वे मुझे नेपाल ले गये और वहाँ मुझे बेच दिया। जिस मनुष्य ने मुझे खरीदा, वह वहाँ से मुझे बब्बरकुल ले गया और वहाँ उसने एक बड़ी रकम लेकर मुझे वेश्या के हाथ बेच दिया। उस वेश्या ने मुझे गाना-बजाना और नृत्य कला सिखाकर नटी बना दिया। वहाँ के राजा महाकाल नाटकों के बड़े ही शौकीन हैं। उन्हीं के यहाँ नटी होकर रहने के लिए मुझे बाध्य होना पड़ा। जब श्रीपाल कुमार वहाँ पहुंचे और इनके साथ राजकुमारी मदनसेना का ब्याह हुआ तब राजा ने एक नाटकमण्डली भी दहेज में दी, मैं भी उसी मण्डली में थी । उसी समय से मैं श्रीपाल कुमार के साथ रह कर नटी की तरह जीवन व्यतीत कर रही हूँ। कर्म योग के सिवा इसे मैं और क्या कहूं? जिस समय मैनासुन्दरी पर मैंने दु:ख पड़ते देखा था, उस समय मैं मन ही मन प्रसन्न और गर्वित हुई थी; किन्तु आज मुझे उसे मैना - पति का दास्यत्व अंगीकार करना पड़ा। - सुरसुन्दरी के उपरोक्त जीवन-प्रसंग से लगता है कि उसकी अरिदमन के साथ लग्न हुए होने पर भी उसे नटी की तरह नाचना पड़ा। पति के सहवास का योग नहीं मिल सका। यह भोगान्तराय कर्म का ही दुष्फल है। उज्जयिनी से श्रीपाल चम्पानगरी के बाहर ठहरा। अपने पिता का राज्य लेने के लिए चाचा वीरदमन से युद्ध किया। वीरदमन की पराजय हुई। पराजय से खिन्न होकर उसने वहीं मुनिव्रत स्वीकार कर लिये । श्रीपाल राजसिंहासन को ग्रहण कर पूरे अन्तःपुर के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगा। एक बार अवधिज्ञानी अजीतसेन राजर्षि घूमते-घूमते चंपानगरी पधारे। राजा श्रीपाल ने भी प्रवचन सुना । प्रवचन सुनने के बाद राजा श्रीपाल ने करबद्ध हो प्रश्न किया — गुरुदेव ! कृपया मुझे यह बताइये कि बाल्यावस्था में मुझे किस कर्म के उदय से कुष्ट रोग 'हुआ था ? किस कर्म के कारण स्थान-स्थान पर मुझे ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति हुई ? किस कर्म के कारण मैं समुद्र में गिरा ? किस कर्म के कारण मुझे भांड होने का कलंक लगा? किस कर्म से ये विपत्तियां दूर हो गईं? किंस कर्म से मुझे इतनी स्त्रियां प्राप्त हुईं? अजीतसेन राजर्षि ने श्रीपाल की जिज्ञासाओं का समाधान करते कहाश्रीपाल ! सुनो, मैं तुम्हें तुम्हारा पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुना रहा हूँ इस भरतक्षेत्र में हिरण्यपुर नामक एक नगर है। कुछ समय पहले वहाँ श्रीकान्त नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम श्रीमती था। वह गुणवती, शीलवती और जैनधर्म में श्रद्धा रखने वाली थी। राजा को शिकार का बड़ा ही बुरा व्यसन था। रानी ने बहुत बार राजा को समझाया — राजन् ! शिकार मत खेलिये। 260 कर्म-दर्शन -
SR No.032424
Book TitleKarm Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchan Kumari
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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