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________________ अशुद्ध शुद्ध क्रीत-कृत का बहुजनों के बीच प्रज्ञापन यावत् राज-पिण्ड का बहुजनों के बीच प्रज्ञापन पूर्वसूत्र | यह (क्रीत-कृत का बहुजनों के बीच प्रज्ञापन) भी पूर्ववत् (भ. ५/१४५ की भांति) यावत् राज-पिण्ड (१४५) की भांति (का बहुजनों के बीच प्रज्ञापन) ३ । नैरयिक जीवों की भांति पंचेन्द्रिय-तिर्यक्योनिक-जीवों के यावत् (नैरयिक-जीवों (म. ५/१८३) की भांति पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीवों के) वही वक्तव्यता यावत् १२३ १३४ शतक ६ उसकी वक्तव्यता नैरयिक की भांति (सू. १२२) ज्ञातव्य है। असुरकुमार से स्तनितकुमार तक यही वह नैरयिकों (भ. ६/१२२) की भांति वक्तव्य है (पूर्ति-पण्णवणा, पद २)यावत् स्तनितकुमार वक्तव्यता। | (वक्तव्य है)। १५ होता है। होता है। (यहां अंगसुत्ताणि भाग २ के पादटिप्पण में बताया है कि अणुओगवाराई (सू. ३६६) में 'पूर्व-विदेह-अपर-विदेह के मनुष्यों के आठ बालायों का भरत-ऐरक्त के मनुष्यों का एक बालान होता है तथा भरत-ऐरवत के मनुष्यों के आठ बालारों की एक लिक्षा होती है'-ऐसा पाठ है।) निम्नांकित स्थानों पर पुद्गलों का ग्रहण (अशुद्ध) की जगह पुद्गलों को ग्रहण (शुद्ध) पढ़ें २१८,२१६/१६३-१६७/सर्वत्र। शतक ७ २, ३, प्रथम दण्डक की भांति तीनों हैं। (सू. ४०-४२) यावत् मनुष्यों तक तीनों का अल्प-बहुत्व भी प्रथम दण्डक (भ.७/४०-४२) की भांति (वक्तव्य है) यावत् मनुष्यों का १०१-१०३ १०४ १०५ १३२, १३४, १३५ १४२ मंते! जो भविक जीव नैरयिक-रूप में उपपन्न भंते! जो भव्य (नरयिक के रूप उपपन्न होने की योग्यता प्राप्त जीव) नैरयिकों में उपपन्न मंते! जो भविक जीव असुरकुमारों में उपपन्न भंते! जो भव्य (असुरकुमार के रूप में उपपन्न होने की योग्यता प्राप्त जीव) असरकमारों में उपपन्न मंते! जो भविक जीव पृथ्वीकायिकों में उपपन्न भंते! जो भव्य (पृथ्वीकायिक के रूप में उपपन्न होने की योग्यता प्राप्त जीव) पृथ्वीकायिकों में उपपन्न है, अथवा है? (अथवा) भोग १५ भंते! पृथ्वीकायिक-जीव किस अपेक्षा से भोगी है? (मंते!) यह किस अपेक्षा से (भ.७/१३६) (एसा कहा जा रहा है) यावत् भोगी है? (-पृथ्वीकायिक-जीव गौतम! स्पर्शन-इन्द्रिय की अपेक्षा से। उनके स्पर्शन-इन्द्रिय है, इसलिए वे भोगी है। | कामी नहीं है, भोगी है?) अप्कायिक-, तेजस्कायिक-, वायुकायिक- और वनस्पतिकायिक जीवों की वक्तव्यता पृथ्वीकायिक-जीवों गौतम! स्पर्शन-इन्द्रिय की अपेक्षा से। (उनके स्पर्शन-इन्द्रिय है,) इस अपेक्षा से (कहा जा के समान है। द्वीन्द्रिय जीवों के विषय में यही वक्तव्यता है, केवल इतना रहा है) यावत भोगी है। इस प्रकार यावत (अष्कायिक-, तेजसकायिक, वायुकायिक-और) वनस्पति कायिक-जीव (वक्तव्य है)। द्वीन्द्रिय जीव इसी प्रकार (वक्तव्य है), इतना हैं, अथवा हैं? (अथवा) भोग ६-८ ___ हूं।' महावीर ने धर्म उपदेश दिया और वह प्रवजित हो गया। स्कन्दक (म.२/५०-६३) की हूं।' इस प्रकार स्कन्दक (भ.२/५०-६३) की भांति (पूरी वक्तव्यता-महावीर ने धर्म का उपदेश भांति पूरी वक्तव्यता कालोदायी ने ग्यारह | दिया और वह) प्रवजित हो गया, उसी प्रकार (कालोदायी ने) ग्यारह निम्नांकित स्थानों पर पुद्गलों का ग्रहण (अशुद्ध) की जगह पुद्गलों को ग्रहण (शुद्ध) पढ़ें २४२ १३२, १३४, १३५ २२० २५७ २४७,२४८/१६७-१७२/सर्वत्र। शतक ८ ३ | इसी प्रकार गर्भावक्रान्तिक-जलचर तिर्यंच की वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् समूछिम २६२ इस प्रकार गर्भावक्रान्तिक-जलचर-तिर्यच भी वक्तव्य हैं। संमूर्छिम चतुष्पद-स्थलचर इसी प्रकार (वक्तव्य है)। इस प्रकार गर्भावक्रान्तिक (-चतुष्पद-स्थलचर) भी (वक्तव्य है। इस प्रकार यावत् समूर्छिम-परिणत (पुद्गल) भी (वक्तव्य है)। इसी प्रकार अपर्याप्तक-गर्भावक्रान्तिक (-जलचर-तियच-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल) (वक्तव्य है)। इसी -परिणत की वक्तव्यता। इसी
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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