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________________ भगवती सूत्र श. ११ : उ. १२ : सू. १८०-१८६ जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय - अधिक यावत् उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न है - यह अर्थ सत्य है । आर्यो ! मैं भी इस प्रकार का आख्यान यावत् प्ररूपणा करता हूं-आर्यो ! देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय - अधिक, दो समय - अधिक, तीन समय-अधिक यावत् दस-समय- अधिक, संख्येय-समय-अधिक, असंख्येय-समय-अधिक, उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम प्रज्ञप्त है। इसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं - यह अर्थ सत्य है । १८१. उन श्रमणोपासकों ने श्रमण भगवान महावीर से इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर, श्रमण भगवान महावीर को वन्दन - नमस्कार किया, वन्दन - नमस्कार कर जहां श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र थे वहां आए, वहां आकर श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र को वन्दन - नमस्कार किया, वन्दन - नमस्कार कर बोले- 'तुमने जो कहा, वह अर्थ सम्यक् है' विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना की। उन श्रमणोपासकों ने श्रमण भगवान महावीर से अन्य प्रश्न पूछे, पूछकर अर्थ को हृदय में धारण किया, हृदय में धारण कर श्रमण भगवान महावीर को वन्दन- नमस्कार किया, वन्दन - नमस्कार कर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में लौट गए । १८२. भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को 'भंते!' ऐसा कहकर वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर इस प्रकार कहा - भंते! श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र देवानुप्रिय के समीप मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होगा ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र बहुत शीलव्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से यथा- परिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन करेगा, पालन कर एक महीने की संलेखना से अपने शरीर को कृश बना कर, अनशन के द्वारा साठ-भक्त का छेदन कर, आलोचना-प्रतिक्रमण कर समाधि-पूर्ण दशा में कालमास में काल को प्राप्त कर सौधर्म - कल्प के अरुणाभ-विमान में देव-रूप में उत्पन्न होगा। वहां कुछ देवों की स्थिति चार पल्योपम की प्रज्ञप्त है। वहां ऋषिभद्रपुत्र देव की भी स्थिति चार पल्योपम होगी। १८३. भंते! ऋषिभद्रपुत्र देव आयु-क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनंतर उस देवलोक से च्यवन कर कहां जाएगा ? कहां उपपन्न होगा ? गौतम ! महाविदेह वास में सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों का अंत करेगा । १८४. भंते! वह ऐसा ही है, वह ऐसा ही है - इस प्रकार भगवान गौतम यावत् आत्मा को भावित करते हुए विहार करने लगे । १८५. श्रमण भगवान महावीर ने कभी किसी दिन आलभिका नगरी से शंखवन चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहर जनपद - विहार करने लगे । पुद्गल - परिव्राजक - पद १८६. उस काल और उस समय में आलभिका नाम की नगरी थी - वर्णक । वहां शंखवन नाम का चैत्य था - वर्णक । उस शंखवन चैत्य से कुछ दूरी पर पुद्गल नाम का परिव्राजक था - वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, यावत् अन्य अनेक ब्राह्मण और परिव्राजक संबंधी नयों में निष्णात, निरंतर ४३८
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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