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________________ भगवती सूत्र श. ११ : उ. १२ : सू. १७६-१८० उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं। १७७. श्रमणोपासकों ने श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र के इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करने पर इस अर्थ पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की। इस अर्थ पर अश्रद्धा, अप्रतीति, और अरुचि करते हुए जिस दिशा से आए थे उसी दिशा में लौट गए। १७८. उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर यावत् पधारे यावत् परिषद् ने पर्युपासना की। वे श्रमणोपासक इस कथा को सुनकर हृष्टतुष्ट चित्त वाले हो गए। वे परस्पर एक-दूसरे को संबोधित कर इस प्रकार बोले-देवानुप्रियो! श्रमण भगवान महावीर यावत् आलभिका नगरी में प्रवास-योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहार कर रहे हैं। देवानुप्रियो! तथारूप अर्हत् भगवान के नाम-गोत्र का श्रवण भी महान् फलदायक है, फिर अभिगमन, वन्दन, नमस्कार, प्रतिपृच्छा और पर्युपासना का कहना ही क्या? एक भी आर्यधार्मिक सुवचन का श्रवण महान फलदायक है फिर विपुल अर्थ-ग्रहण का कहना ही क्या? इसलिए देवानुप्रियो! हम चलें, श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार करें, सत्कार-सम्मान करें। वे कल्याणकारी हैं, मंगल, देव और प्रशस्त चित्त वाले हैं। उनकी पर्युपासना करें। यह हमारे परभव और इहभव के लिए हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा। ऐसा सोच कर उन्होंने परस्पर इस अर्थ को स्वीकार किया। स्वीकार कर जहां अपना-अपना घर था वहां आए। वहां आकर उन्होंने स्नान किया, बलि-कर्म किया, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किया, शुद्ध प्रवेश्य (सभा में प्रवेशोचित) मांगलिक वस्त्रों को विधिवत् पहना। अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत किया। इस प्रकार सज्जित होकर वे अपने-अपने घरों से निकलकर एक साथ मिले, एक साथ मिलकर पैदल चलते हुए आलभिका नगरी के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां शंखवन चैत्य था, जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आए। वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को यावत् तीन प्रकार की पर्युपासना के द्वारा पर्युपासना की। श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमणोपासकों को उस विशालतम परिषद् में धर्म का उपदेश दिया यावत् आज्ञा की आराधक होता है। १७९. वे श्रमणोपासक श्रमण भगवान महावीर से धर्म को सुनकर, अवधारण कर, हृष्टतुष्ट हो गए। वे उठकर खड़े हुए खड़े होकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया, वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-'भंते! श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र ने इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा की आर्यो! देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है। इसके बाद एक-समय-अधिक यावत् उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न है। १८०. भंते! यह इस प्रकार कैसे है? आर्यो! श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमणोपासकों को इस प्रकार कहा–आर्यो! श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र ने इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा की-देवलोक में देवों की ४३७
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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