SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 509
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र श. ११ : उ. १२ : सू. १८६-१९० बेले - बेले (दो दिन का उपवास) के तप की साधना के द्वारा दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापन भूमि में आतापना लेता हुआ विहरण कर रहा है । - १८७. उस पुद्गल परिव्राजक का निरंतर बेले- बेले तपः कर्म के द्वारा, दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापन - भूमि में आतापना लेते हुए, प्रकृति की भद्रता, प्रकृति की उपशांतता, प्रकृति में क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रतनुता, मृदुमार्दव संपन्नता, आत्मलीनता और विनीतता के द्वारा किसी समय तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम के द्वारा ईहा, अपोह, मार्गणा - गवेषणा करते हुए विभंग नाम का ज्ञान समुत्पन्न हुआ। वह उस समुत्पन्न विभंग ज्ञान के द्वारा ब्रह्मलोक कल्प तक के देवों की स्थिति को जानता देखता है। १८८. उस पुद्गल परिव्राजक के इस आकार वाला आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ - मुझे अतिशायी ज्ञान दर्शन समुत्पन्न हुआ है। देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है। उसके बाद एक समय अधिक, दो -समय-अधिक यावत् असंख्येय-समय-अधिक, उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं- इस प्रकार संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर आतापन - भूमि से नीचे उतरा, उतर कर त्रिदंड, कमंडलु यावत् गैरिक वस्त्रों को ग्रहण किया, ग्रहण कर जहां आलभिका नगरी थी, जहां परिव्राजक रहते थे, वहां आया, आकर भंड को स्थापित किया, स्थापित कर आलभिका नगरी के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करने लगा - देवानुप्रिय ! मुझे अतिशायी ज्ञान- दर्शन समुत्पन्न हुआ है, देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक, यावत् असंख्येय-समय- अधिक, उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं । १८९. पुद्गल परिव्राजक के समीप इस अर्थ को सुनकर अवधारण कर आलभिका नगरी के श्रृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार-द्वार वाले स्थानों राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार का आख्यान यावत् प्ररूपणा करने लगे - देवानुप्रिय ! पुद्गल परिव्राजक ने इस प्रकार का आख्यान यावत् प्ररूपणा की है - देवानुप्रिय ! मुझे अतिशायी ज्ञान - दर्शन समुत्पन्न हुआ है। इस प्रकार निश्चित ही देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक यावत् असंख्येय समय अधिक, उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं । इस प्रकार यह कैसे है ? १९०. भगवान महावीर पधारे, परिषद् ने नगर से निर्गमन किया। भगवान ने धर्म कहा । परिषद् वापिस नगर में चली गई । सामुदयिक भिक्षा के लिए घूमते हुए भगवान गौतम ने अनेक व्यक्तियों से ये शब्द सुने, सुनकर पूर्वोक्त सम्पूर्ण वृत्तांत भगवान महावीर से निवेदित किया यावत् गौतम ! मैं इस प्रकार आख्यान, इस प्रकार कथन यावत् प्ररूपणा करता हूं-देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय-अधिक, दो -समय- अधिक यावत् असंख्येय-समय- अधिक, उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं । ४३९
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy