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________________ भगवती सूत्र श. ११ : उ. ११,१२ : सू. १६९-१७६ क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनतर उस देवलोक से च्यवन कर इसी वाणिज्यग्राम नगर में श्रेष्ठिकुल में पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए । १७०. सुदर्शन ! तुमने बाल्यावस्था को पार कर, विज्ञ और कला के पारगामी बन कर, यौवन को प्राप्त कर तथारूप स्थविरों के पास केवलिप्रज्ञप्त-धर्म को सुना। वही धर्म इच्छित, प्रतीच्सित, अभिरुचित है। सुदर्शन ! वह अच्छा है, जो तुम अभी कर रहे हो । सुदर्शन ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-इन पल्योपम-सागरोपम का क्षय - अपचय होता है। १७१. श्रमण भगवान महावीर के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर, शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्ध लेश्या और तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम के द्वारा ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए सुदर्शन श्रेष्ठी को पूर्ववर्ती संज्ञी भवों का जाति - स्मृति- ज्ञान समुत्पन्न हुआ। उसने इस अर्थ को सम्यक् साक्षात् जान लिया । १७२. श्रमण भगवान महावीर द्वारा पूर्वभव का जाति स्मृति ज्ञान कराने से सुदर्शन श्रेष्ठी की श्रद्धा और संवेग द्विगुणित हो गए। उसके नेत्र आनंदाश्रु से पूर्ण हो गए। उसने श्रमण भगवान महावीर को दाईं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, वंदन - नमस्कार किया । वंदन- नमस्कार कर इस प्रकार कहा - भंते! यह ऐसा ही है, भंते! यह तथा (संवादितापूर्ण) है, भंते! यह अवितथ है, भंते! यह असंदिग्ध है। भंते! यह इष्ट है, भंते! यह प्रतीप्सित है, भंते! यह इष्ट-प्रतीप्सित है। जैसा आप कह रहे हैं ऐसा भाव प्रदर्शित कर वह उत्तर-पूर्व दिशा भाग (ईशान कोण) की ओर गया शेष जैसे ऋषभदत्त (भ. ९ / १५१ ) की वक्तव्यता वैसे ही यावत् सर्व दुःखों अंत किया, इतना विशेष है-चौदह पूर्वों का अध्ययन किया, बहुप्रतिपूर्ण बारह वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया, शेष पूर्ववत् । १७३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है । बारहवां उद्देशक ऋषिभद्रपुत्र - पद १७४. उस काल और उस समय में आलभिका नामक नगरी थी - वर्णक, शंखवन चैत्यवर्णक । उस आलभिका नगरी में अनेक ऋषिभद्रपुत्र आदि श्रमणोपासक रहते थे। वे संपन्न यावत् बहुजन के द्वारा अपरिभवनीय थे । जीव- अजीव के जानने वाले यावत् यथा परिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विहार कर रहे थे । १७५. किसी समय एकत्र सम्मिलित, समुपागत, सन्निविष्ट और सन्निषण्ण उन श्रमणोपासकों में परस्पर इस प्रकार का वार्तालाप हुआ - आर्यो ! देवलोक में देवों की स्थिति कितने काल की प्रज्ञप्त है ? १७६. ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक को देवस्थिति का अर्थ गृहीत था । उसने श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा- आर्यो ! देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय - अधिक, दो समय अधिक, तीन समय अधिक यावत् दस-समय- अधिक, संख्येय-समय-अधिक, असंख्येय-समय-अधिक, उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम प्रज्ञप्त है, ४३६
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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