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________________ भगवती सूत्र श. ८: उ. ७,८ : सू. २८८-२९५ की पर्ति, सेवा आदि कार्य तथा संयम की दृष्टि से गमन करते हुए पृथ्वी के समुचित देश पर, समुचित प्रदेश पर गमन करते हैं । अतः समुचित देश और समुचित प्रदेश पर गमन करते हुए हम पृथ्वी को आक्रांत, अभिहत यावत् उपद्रुत नहीं करते हैं । पृथ्वी को अनाक्रांत, अनभिहत यावत् अनुपद्रुत करते हुए हम तीन योग और तीन करण से संयत, विरत, अतीत के पाप कर्म का प्रतिहनन करने वाले, भविष्य के पाप कर्म का प्रत्याख्यान करने वाले यावत् एकान्त पण्डित भी हैं। आर्यो ! तुम स्वयं तीन योग और तीन करण से असंयत, अविरत, अतीत के पाप कर्म का प्रतिहनन न करने वाले, भविष्य के पाप कर्म का प्रत्याख्यान न करने वाले यावत् एकान्त बाल भी हो । २८९. उन अन्ययूथिकों ने भगवान स्थविरों से इस प्रकार कहा- आर्यो! कैसे हम तीन योग और तीन करण से असंयत यावत् एकान्त बाल भी हैं ? २९०. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययूथिकों से इस प्रकार कहा- आर्यो ! तुम गमन करते हुए पृथ्वी को आक्रांत यावत् उपद्रुत करते हो । पृथ्वी को आक्रांत यावत् उपद्रुत करते हुए तीन योग और तीन करण से असंयत यावत् एकान्त बाल भी हो । गम्यमान - गत की अपेक्षा २९१. उन अन्ययूथिकों ने भगवान स्थविरों से इस प्रकार कहा- आर्यो ! तुम्हारे मत के अनुसार गम्यमान अगत (नहीं गया हुआ), व्यतिक्रम्यमान अव्यतिक्रांत, राजगृह नगर को संप्राप्त करने की कामना करने वाला असंप्राप्त होता है । २९२. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययूथिकों से इस प्रकार कहा- आर्यो ! हमारे मत के अनुसार गम्यमान अगत, व्यतिक्रम्यमान अव्यतिक्रांत, राजगृह नगर को संप्राप्त करने की कामना करने वाला असंप्राप्त नहीं होता। आर्यो! हमारे मत के अनुसार गम्यमान गत, व्यतिक्रम्यमान व्यतिक्रान्त, राजगृह नगर को संप्राप्त करने की कामना करने वाला संप्राप्त होता है । तुम्हारे अपने मत के अनुसार गम्यमान अगत, व्यतिक्रम्यमान अव्यतिक्रांत, राजगृह नगर को संप्राप्त करने की कामना करने वाला असंप्राप्त होता है। भगवान स्थविरों ने अन्ययूथिकों को इस प्रकार प्रत्युत्तर दिया, प्रत्युत्तर देकर 'गतिप्रवाद' नाम के अध्ययन का प्रज्ञापन किया । २९३. भंते! गतिप्रवाद कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ? गौतम ! गतिप्रवाद पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- प्रयोग गति, तत-गति, बंधच्छेदन-गति, उपपात-गति, विहाय-गति, इस गति सूत्र से प्रारंभ कर विहायगति के व्याख्या- सूत्र तक पण्णवणा (पद १६ ) का प्रयोग - पद निरवशेष रूप में वक्तव्य है। २९४. भते ! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। आठवां उद्देश प्रत्यनीक - पद २९५. राजगृह में समवसरण यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार कहा - भंते! गुरु की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक प्रज्ञप्त हैं ? ३०४
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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