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________________ श. ३ : उ. ४,५ : सू. १८८-१९६ भगवती सूत्र गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है। १८९. भन्ते! भावितात्मा अनगार बाहरी पुद्गलों का ग्रहण कर राजगृह नगर में जितने रूप हैं, उतो रूपों की विक्रिया कर वैभार पर्वत के भीतर प्रविष्ट हो क्या उसके समभाग को विषम करने में और विषम भाग को सम करने में समर्थ है ? हां, वह समर्थ है। १९०. भन्ते! मायी विक्रिया (रूप-निर्माण) करता है? अमायी विक्रिया करता है? गौतम! मायी विक्रिया करता है, अमायी विक्रिया नहीं करता। १९१. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-मायी विक्रिया करता है, अमायी विक्रिया नहीं करता? गौतम! मायी प्रणीत पान-भोजन खा-खा कर उसका वमन करता है, उस प्रणीत पान-भोजन से उसकी अस्थियां और अस्थि-मज्जा सघन हो जाती हैं। मांस और शोणित पतला हो जाता है। वह जिन यथोचित बादर पुद्गलों को लेता है वे भी श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, अस्थि, अस्थि-मज्जा, केश, श्मनु, रोम, नख, शुक्र और शोणितरूप में परिणत हो जाते हैं। अमायी रूक्ष पान-भोजन खा-खा कर उसका वमन नहीं करता। उरा रूक्ष पान-भोजन से उसकी अस्थियां और अस्थिमज्जा पतली हो जाती है। मांस और शोणित राघन हो जाला है। वह जिन यथोचित बादर पुद्गलों को लेता है वह भी मल, मूत्र श्लेष्मा, नासिका-मल, वान, पित्त, पीब और शोणित-रूप में परिणत हो जाते हैं। गौतम! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-मायी विक्रिया करता है, अमायी विक्रिया नहीं करता। १९२. मायी उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना काल को प्राप्त होता है, उसके आराधना नहीं होती। अगायी उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण कर कात को प्राप्त होता है, उसकी आराधना होती है। १९३. भन्ते ! वह ऐसा ही है। धन्ते! वह ऐसा ही है। पांचवां उद्देशक . भाविताहर-दिकुर्वणा-पद १९४. भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण किए बिना एक महान् स्त्री-रूप यावत् स्यन्दमानिका-रूप की विक्रिया करने में समर्थ है.? यह अर्थ संगत नहीं हैं। १९५. भन्ते! क्या भावितात्मा अनगार बहिर्वर्ती पुद्गलों का ग्रहण कर एक महान् स्त्री-रूप यावत् स्यन्दमानिका-रूप का निर्माण करने में समर्थ है? हां, समर्थ है। १९६. भन्ते! भावितात्मा अनगार कितने स्त्री-रूपों का निर्माण करने में समर्थ है? १३४
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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