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________________ भगवती सूत्र जैसे स्त्री रूप की वक्तव्यता है, वैसे ही यान के विषय में वक्तव्य है । १८१. भन्ते ! क्या मेघ एक ओर चक्राकार गति से जाता है अथवा दोनों ओर चक्राकार गति से जाता है ? श. ३ : उ. ४ : सू. १८०-१८८ गौतम ! वह एक ओर चक्राकार गति से भी जाता है तथा दोनों ओर चक्राकार गति से भी जाता है। १८२. इसी प्रकार युग्य, अम्बावाड़ी, बग्घी, शिबिका, और स्यन्दमानिका के संबंध में वक्तव्य है । किंलेश्योपपाद-पद १८३. भन्ते ! जो जीव नैरयिकों में उपपन्न होने योग्य है, वह भंते! कौन-सी लेश्या वाले नैरयिकों में उपपन्न होता है ? गौतम ! जो जीव जिस लेश्या वाले द्रव्यों को ग्रहण कर मरता है, वह उसी लेश्या वाले नैरयिकों में उपपन्न होता है, जैसे - कृष्ण-लेश्या वाले नैरयिकों में अथवा नील- लेश्या वाले नैरयिकों में अथवा कापोत-लेश्या वाले नैरयिकों में। इस प्रकार जिसकी जो लेश्या हो, उसके लिए वह लेश्या वक्तव्य है । यावत् १८४. भन्ते ! जो जीव ज्योतिष्कों में उपपन्न होने योग्य है, वह भंते! कौन-सी लेश्या वाले ज्योतिष्क देवों में उपपन्न होता है ? गौतम ! जो जीव जिस लेश्या वाले द्रव्यों को ग्रहण कर मरता है, वह उसी लेश्या वाले ज्योतिष्क - देवों में उपपन्न होता है, जैसे- तेजो - लेश्या वालों में । १८५. भंते! जो जीव वैमानिकों में उपपन्न होने योग्य है, वह कौन-सी लेश्या वाले वैमानिक देवों में उपपन्न होता है ? गौतम ! जो जीव जिस लेश्या वाले द्रव्यों का ग्रहण कर मरता है, वह उसी लेश्या वालों में उपपन्न होता है, जैसे- तेजो - लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण कर मरने वाला तेजोलेश्या वालों में, पद्म - लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण कर मरने वाला पद्म-लेश्या वालों में, शुक्ल लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण कर मरने वाला शुक्ल- लेश्या वालों में । १८६. भन्ते! भावितात्मा अनगार बाहरी पुद्गलों का ग्रहण किए बिना वैभार पर्वत का उल्लंघन (एक बार लांघना) और प्रलंघन ( बार - बार लांघना) करने में समर्थ है ? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है । १८७. भन्ते ! भावितात्मा अनगार बाहरी पुद्गलों का ग्रहण कर वैभार पर्वत का उल्लंघन और प्रलंघन करने में समर्थ है ? हां, वह समर्थ है। १८८. भन्ते ! भावितात्मा अनगार बाहरी पुद्गलों का ग्रहण किए बिना राजगृह नगर में जितने रूप हैं, उतने रूपों की विक्रिया कर वैभार पर्वत के भीतर प्रविष्ट हो क्या उसके समभाग को विषम करने में और विषम भाग को सम करने में समर्थ है ? १३३
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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