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________________ भगवती सूत्र श. ३ : उ. २ : सू. १०७-१११ १०७. वह बालतपस्वी पूरण पूरे बारह वर्ष के तापस-पर्याय का पालन कर एक मास की संलेखना से अपने आपको कृश बना कर, अनशन के द्वारा साठ भक्तों को छेद कर कालमास में काल को प्राप्त कर चमरचञ्चा राजधानी की उपपात सभा में यावत् इन्द्र रूप में उपपन्न हो गया। १०८. वह तत्काल उपपन्न असुरराज असुरेन्द्र चमर पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त होता है (जैसे-आहार-पर्याप्ति से यावत् भाषा-मनः-पर्याप्ति से)। चमर का कोप-पद १०९. वह असुरेन्द्र असुरराज चमर पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त हो, स्वाभाविक अवधिज्ञान द्वारा ऊर्ध्व-लोक में यावत् सौधर्म-कल्प तथा ध्यान देता है। वहां वह देखता है-देवेन्द्र देवराज मघवा पाकशासन शतक्रतु सहस्राक्ष वज्रपाणि पुरन्दर शक्र को। दक्षिणार्ध-लोक का अधिपति, बत्तीस लाख विमानों का अधिपति, ऐरावण हाथी की सवारी करने वाला, देवताओं का स्वामी, आकाश के सामने निर्मल-वस्त्र धारण करने वाला, मुकुट तक माला धारण करने वाला, नए स्वर्णिम सुन्दर चित्रों से युक्त चंचल कुण्डलों से रखाङ्कित कपोल वाला. दीप्तिमान शरीर वाला. प्रलम्ब वनमाला धारण करने वाला, दिव्य वर्ण से यावत् दसों दिशाओं का उद्द्योतित करने वाला, प्रभासित करने वाला है। उसे सौधर्म कल्प में सौधर्मावतंसक विमान में सुधर्मा सभा के शक्र नामक सिंहासन पर यावत् दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगते हुए देखता है, देखकर असुरेन्द्र चमर के यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-कौन है यह अप्रार्थनीय को चाहने वाला, दुखःद अन्त और अमनोज्ञ लक्षण वाला, लज्जा और शोभा से रहित, हीनपुण्यचतुर्दशी को जन्मा हुआ जो ऐसी विशिष्ट प्रकार की दिव्य देवर्धि, दिव्य देव-द्युति और दिव्य देवानुभाव उपलब्ध करने, प्राप्त करने, अभिसमन्वागत (विपाकाभिमुख) करने पर भी मेरे सिर पर बैठा हुआ, बड़े धैर्य के साथ दिव्य भोगार्ह भोग भोगता हुआ रहता है। ऐसा सोचता है, सोच कर सामानिक परिषद् में उपपन्न देवों को आमन्त्रित करता है, आमन्त्रित कर इस प्रकार बोला-हे देवानुप्रियो! यह कौन है अप्रार्थनीय को चाहने वाला यावत् दिव्य भोगार्ह भोग भोगता हुआ रहता है? ११०. असुरेन्द्र असुरराज चमर के द्वारा ऐसा कहने पर वे सामानिक परिषद् में उपपन्न देव हृष्ट-तुष्ट चित्त वाले, आनन्दित, नन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाले और परम सौमनस्य युक्त हो गए हैं। हर्ष से उनका हृदय फूल गया। वे दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट वाली दश नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमा कर मस्तक पर टिका कर असुरेन्द्र को जयविजय ध्वनि से वर्धापित करते हैं। वर्धापित कर इस प्रकार बोले-देवानुप्रिय! यह देवेन्द्र देवराज शक्र है, यावत् दिव्य भोगार्ह भोग भोगता हुआ रहता है। १११. वह असुरेन्द्र असुरराज चमर सामानिक परिषद् में उपपन्न उन देवों के पास यह बात सुन कर, अवधारण कर तत्काल आवेश में आ गया, रुष्ट हो गया, कुपित हो गया। उसका रूप रौद्र बन गया, वह क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त हो उठा। उसने उन सामानिक देवों से इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो! वह देवेन्द्र देवराज शक्र अन्य है, हमारा विरोधी है वह असुरेन्द्र असुरराज . ११९
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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