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________________ भगवती सूत्र श. ३ : उ. २ : सू. १११, ११२ चमर अन्य है, उसका विरोधी है। वह देवेन्द्र देवराज शक्र महर्द्धिक है और वह असुरेन्द्र असुरराज चमर अल्प ऋद्धि वाला है। इसलिए देवेन्द्र देवराज शक्र की मैं स्वयं अति आशातना (उसे श्रीहीन) करना चाहता हूं, ऐसा कह कर वह तप्त हो गया, तापमय बन गया। चमर का भगवान की निश्रापूर्वक शक्र की आशातना का पद ११२. वह असुरेन्द्र असुरराज चमर अवधि- ज्ञान का प्रयोग करता है। प्रयोग कर अवधि- ज्ञान से मुझे (भगवान् महावीर को ) देखता है। देखने के बाद उसके यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - इस समय श्रमण भगवान् महावीर जम्बूद्वीप द्वीप के भारतवर्ष में सुंसुमारपुर नगर के अशोकषण्ड उद्यान में प्रवर अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्ट पर तीन दिन के उपवास का संकल्प ग्रहण कर एक रात की महाप्रतिमा स्वीकार कर ठहरे हुए हैं। मेरे लिए श्रमण भगवान् महावीर का सहारा लेकर देवेन्द्र देवराज शक्र की अति आशातना करना श्रेयस्कर है, ऐसा सोचकर वह संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर शय्या से उठता है, उठकर देवदूष्य धारण करता है, धारण कर जहां सुधर्मा सभा और चोप्पाल नामक शस्त्रागार है वहां आता है। आकर परिघरत्न को हाथ में लेता है, वह अकेला किसी दूसरे सहारे की अपेक्षा नहीं रखता हुआ वहां से परिघरत्न लेकर बहुत अधिक क्रोध करता हुआ चमरचञ्चा राजधानी के ठीक मध्यभाग से निर्गमन करता है । निर्गमन कर जहां तिगिञ्छिकूट उत्पात पर्वत है, वहां आता है। आकर वैक्रिय - समुद्घात से समवहत होता है। समवहत होकर यावत् उत्तरवैक्रिय रूप का निर्माण करता है । निर्माण कर उस उत्कृष्टत, त्वरित, चपल, चण्ड, जविनी, छेक, सैंही, शीघ्र, उद्भुत और दिव्य देवगति से तिरछी दिशा में असंख्य द्वीप - समुद्रों के मध्य भाग से गुजरता - गुजरता जहां जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष सुंसुमारपुर नगर, अशोकषण्ड उद्यान, प्रवर अशोकवृक्ष और पृथ्वीशिला पट्ट है, जहां मेरा परिपार्श्व है, वहां आता है। आकर तीन बार दांए ओर से प्रारम्भ कर मेरी प्रदक्षिणा करता है । प्रदक्षिणा कर वन्दन - नमस्कार करता है । वन्दन - नमस्कार कर इस प्रकार बोला- भंते! मैं आपकी निश्रा से देवेन्द्र देवराज शक्र की अति आशातना करना चाहता हूं, ऐसा कहकर वह उत्तर- पौरस्त्य दिग्भाग ( ईशानकोण) में पहुंचता है। पहुंचकर वैक्रिय-समद्घात से समवहत होता है। समवहत हो कर यावत् दूसरी बार फिर वैक्रिय समुद्धात से समवहत होता है। एक महान् घोर घोर आकार वाले, भयंकर, भयंकर आकार वाले, भास्वर (चौंधियाने वाले ) भयानक, गंभीर, त्रास देने वाले, अमा की अर्धरात्रि और उरद की राशि जैसे काले एक लाख योजन की अवगाहना वाले महाशरीर का निर्माण करता है। निर्माण कर हाथों को आकाश में उछालता है, कूदता है, गर्जन करता है, अश्व की भांति हिनहिनाता है, हाथी की भांति चिंघाड़ता है, रथ की भांति घनघनाहट (घड़घड़ाहट) करता है, पैरों से भूमि पर प्रहार करता है, भूमि पर चपेटा मारता है, सिंहनाद करता है, कभी आगे की ओर चपेटा मारता है, कभी पीछे की ओर, त्रिपदी का छेद करता है, बांई भुजा को ऊंचा उठाता है, दाएं हाथ की तर्जनी अंगुली और अंगूठे के नख द्वारा मुंह को टेढ़ा कर विकृत करता है, ऊंचे-ऊंचे शब्द से कलकलरव करता है । ( इस भयानक मुद्रा में) उसने अकेले, किसी दूसरे के सहारे की अपेक्षा नहीं रखता हुआ परिघरत्न को ले कर ऊपर आकाश की उड़ान भरी। मानो अधो १२०
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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