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________________ श. ३ : उ. २ : सू. १०३-१०६ भगवती सूत्र युक्त, कृश और धमनियों का जालमात्र हो गया। पूरण का प्रायोपगमन-पद १०४. किसी एक दिन मध्यरात्रि में अनित्य-जागरिका करते हुए उस बाल तपस्वी पूरण के मन में यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मैं इस विशिष्ट रूप वाले प्रधान, विपुल, अनुज्ञात, प्रगृहीत, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय, शोभायित, उत्तरोत्तर वर्धमान, उदात्त, उत्तम और महान् प्रभावी तपःकर्म से सूखा, रूखा, यावत् धमनियों का जालमात्र हो गया हूं। अतः जब तक मुझमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम है, तब तक मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं कल उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर बेभेल सन्निवेश में जिन्हें देखा है, जिनके साथ बातचीत की है, उन पाषण्डस्थो (श्रमणों), गृहस्थों तापस जीवन की स्वीकृति से पूर्व परिचितों तथा तापस जीवन में परिचितों को पूछ कर बेभेल सन्निवेश के मध्यभाग से गुजरकर पादुका, कमण्डलु आदि उपकरण तथा चतुष्पुटक काष्ठमय पात्र को एकान्त में छोड़कर कर बेभेल सन्निवेश के दक्षिण-पूर्व दिग्विभाग (आग्नेय-कोण) में अर्ध निवर्तनिक मण्डल का आलेखन कर संलेखन (अनशन से पूर्वकालिक तपस्या) की आराधना से युक्त होकर, भोजन-पानी का त्याग कर प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ रहूं, ऐसी संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर बेभेल सन्निवेश में जिन्हें देखा है, जिनके साथ बातचीत की है, उन पाषण्डस्थों (श्रमणों) और गृहस्थों, तापस-जीवन की स्वीकृति से पूर्व परिचितों और तापस-जीवन में परिचितों को पूछता है, पूछकर बेभेल सनिवेश के मध्यभाग से निर्गमन करता है, निर्गमन कर वह पादुका, कमण्डलु आदि उपकरण और चतुष्पुटक काष्ठमय पात्र को एकान्त स्थान में छोड़ देता है, छोड़कर बेभेल सन्निवेश के दक्षिण-पूर्व दिग्विभाग में अर्धनिवर्तनिक मण्डल का आलेखन करता है, आलेखन कर वह संलेखना-आराधना से युक्त होकर भोजन-पानी का प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन अनशन में उपस्थित हो गया। भगवान की एकरात्रिकी महाप्रतिमा का पद १०५. गौतम! उस काल और उस समय में मैं छद्मस्थ-अवस्था की ग्यारह वर्षीय दीक्षा-पर्याय में था। तब मैं बिना विराम षष्ठ-भक्त तपःकर्म, संयम और तप से आत्मा को भावित करता हुआ क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम में परिव्रजन करता हुआ जहां सुंसुमारपुर, अशोकषण्ड उद्यान, प्रवर अशोक वृक्ष और पृथ्वीशिलापट्ट है, वहां आता हूं। वहां आकर मैं प्रवर अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वी-शिलापट्ट पर तीन दिनका उपवास ग्रहण करता हूं। दोनों पैरों को सटा, दोनों हाथों को प्रलम्बित कर, एक पुद्गल पर दृष्टि टिका, नेत्रों को अनिमेष बना, मुंह आगे की ओर झुका, अवयवों को अपने-अपने स्थान पर सम्यक् नियोजित कर, सब इन्द्रियों को संवृत बना एक रात की महाप्रतिमा को स्वीकार कर विहरण करता हूं। पूरण का चमरत्व-पद १०६. उस काल और उस समय में चमरचञ्चा राजधानी इन्द्र और पुरोहित से रिक्त थी। ११८
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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