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________________ भगवती सूत्र श. ३ : उ. २ : सू. १०२,१०३ पूरण की दानामा प्रव्रज्या का पद १०२. किसी समय मध्यरात्रि में कुटुम्बजागरिका करते हुए उस पूरण गृहपति के यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ इस समय मेरे पूर्वकृत पुरातन सु-आचरित, सुपराक्रान्त, शुभ और कल्याणकारी कर्मों का कल्याणदायी फल मिल रहा है, जिससे मैं चांदी, सोना, धन, धान्य, पुत्र, पशु तथा विपुल वैभव-रत्न, मणि, मोती, शंख, शिला, प्रवाल, लालरत्न (पद्मरागमणि) और श्रेष्ठ सार-वैभवशाली द्रव्यों द्रव्यों से अतीव-अतीव वृद्धि कर रहा हूं, तो क्या मेरे पूर्वकृत पुरातन सु-आचरित, सुपराक्रान्त, शुभ और कल्याणकारी कर्म एकान्ततः क्षीण हो रहे हैं और मैं उन्हें देखता हुआ विहरण कर रहा हूं? इसलिए जब तक मैं चांदी से वृद्धि कर रहा हूं यावत् इन वैभवशाली द्रव्यों से अतीव-अतीव वृद्धि कर रहा हूं और जब तक मेरे मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी और परिजन मेरा आदर करते हैं, मुझे स्वामी के रूप में स्वीकारते हैं, सत्कार-सम्मान देते हैं, कल्याणकारी, मंगलकारी, देवरूप और चित्ताह्लादक मानकर विनयपूर्वक पर्युपासना करते हैं तब तक मेरे लिए यह श्रेय है कि मैं कल उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर मैं स्वयं चतुष्पुट काष्ठमय पात्र का निर्माण कर, विपुल भोजन, पेय, स्वाद्य और खाद्य पदार्थ तैयार करवा कर, मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी और परिजनों को आमन्त्रित कर, उन्हें विपुल भोजन, पेय, खाद्य, ओर स्वाद्य पदार्थों से तथा वस्त्र, सुगन्धित द्रव्य, माला और अलंकारों से सत्कृत-सम्मानित कर, उन्हीं मित्रों, ज्ञातियों, कुटुम्बीजनों, स्वजनों, संबंधियों और परिजनों के सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित कर, उन मित्रों, ज्ञातियों, कुटुम्बीजनों, स्वजनों, संबंधियों, परिजनों और ज्येष्ठ पुत्र को पूछकर, स्वयं चतुष्पुट काष्ठमय पात्र ग्रहण कर, मुण्ड होकर दानामा प्रव्रज्या से प्रव्रजित होना मेरे लिए श्रेयस्कर है। प्रव्रजित होकर मैं इस आकार वाला यह अभिग्रह स्वीकार करूंगा-मैं जीवन भर निरन्तर बेले-बेले (दो-दो दिन के उपवास) की तपःसाधना करूंगा। मैं आतापना-भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठा कर सूर्य के सामने आतापना लेता हुआ विहार करूंगा। बेले के पारणे में मैं आतापना-भूमि से उतरकर स्वयं चतुष्पुट काष्ठमय पात्र ग्रहण कर बेभेल सन्निवेश के ऊंच, नीच और मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षाचारी के लिए पर्यटन करूंगा। मेरे पात्र के प्रथम पुट में जो भिक्षा डाली जाएगी वह मार्ग में समागत पथिकों को दूंगा। मेरे पात्र के दूसरे पुट में जो भिक्षा डाली जाएगी वह मैं कौवों और कुत्तों को दूंगा। जो मेरे पात्र के तीसरे पुट में डाली जाएगी वह मछलियों और कछुओं को दूंगा। मेरे पात्र के चौथे पुट में जो डाली जाएगी वह आहार मेरे लिए कल्पनीय होगा। इस प्रकार सोच कर वह संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर उषाकाल में रात्रि के पौ फटने पर उस सम्पूर्ण पूर्वोक्त विधि का पालन करता हुआ यावत् उसके पात्र के चौथे पुट में जो भिक्षा डाली जाती है, उसका वह स्वयं आहार करता है। १०३. वह बालपतस्वी पूरण उस प्रधान, विपुल, अनुज्ञात और प्रगृहीत बालतपः-कर्म से सूखा, रूखा, मांस-रहित चर्म से वेष्टित अस्थि वाला, उठते-बैठते समय किट-किट शब्द से ११७
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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