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________________ - जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 वस्तुएँ भी अपने यहाँ सहज उपलब्ध हैं। फिर चोरी करने का क्या काम है ? चौर्य कर्म तो महापापमय है और लोकनिंद्य भी । इससे तो जीव वर्तमान में ही अगणित दुःखों को पाते हैं और जगत में अपयश के पात्र बनते हैं। विवेकहीन हो यहाँ सन्ताप को प्राप्त होते हैं और परलोक में भी महादुःख प्राप्त करते हैं, इसलिये ऐसे कार्य को भविष्य में तुम कभी नहीं करना।" जैसे ज्वर पीड़ित को मिष्ट भोजन नहीं सुहाता है, वैसे ही पाप से मोहित विद्युच्चर को पिता द्वारा दी गई सुखप्रद सीख अच्छी नहीं लगी। वह बड़ों की मान-मर्यादा को तोड़कर पिता को जवाब देने लगा"हे पिता महाराज ! चौर्य कर्म और राज्य में बड़ा अन्तर है। राज्य में तो परिमित लक्ष्मी होती है, मगर चोरी से अपरिमित लक्ष्मी का लाभ होता है, इसलिए दोनों में समानता नहीं हो सकती। आपको चौर्यकर्म से भी गुण ग्रहण करना चाहिए।" इसप्रकार कह कर वह कुछ भी सोचे-विचारे बिना पिता के वचनों का उल्लंघन करके क्रोधाग्नि से कुपित होकर घर से निकल गया और राजगृही नगरी में जाकर वहाँ चौरी के साथ-साथ एक वैश्या के चक्कर में फंस गया। उसके रूप पर मोहित होकर उसके साथ इच्छानुसार विषय-कषाय में मग्न होकर रहने लगा तथा उसकी हर इच्छा पूर्ण करने में तत्पर वह सातों व्यसनों में लीन होकर समय व्यतीत करने लगा। अब धीरे-धीरे उस विधुच्चर चोर ने अपना गिरोह इतना बढ़ा लिया कि उसके गिरोह में 500 और चोर शामिल हो गये और वह उनका सरदार बन गया। देखो ! परिणामों की विचित्रता, जो स्वयं राजपुत्र था अर्थात् भविष्य का राजा था, आज वही चोरों का राजा बन गया है। एक दिन जब नगर श्रेष्ठी अर्हद्दास के पुत्र जम्बूकुमार का चार
SR No.032272
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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