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________________ 55 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 चार श्रेष्ठी कन्या रत्नों से विवाह सम्पन्न हुआ, तब इस 500 चोरों के सरदार विद्युच्चर चोर ने सोचा-“आज ही जम्बूकुमार का विवाह हुआ है, तो वहाँ बहुत धन-सम्पत्ति मिलेगी, इसलिये आज वहीं जाया जावे।" ____ अतः वह चोरी की भावना से अर्हद्दास के महल में आया। लेकिन उसने देखा कि यहाँ तो कुमार एवं रानियाँ विषय-कषाय को भूलकर धार्मिक तत्त्वचर्चा कर रहे हैं। तब वह सोचने लगा __ "यह कैसा आश्चर्य ? सारा जगत तो इस रात को विषयों में डूबे रहते हैं और इस कुमार को क्या हो गया है ? भोग के समय योग कर रहा है। वाह ! यहाँ तो राग के बदले वीतरागता की वार्ताएँ हो रही हैं। ये राज्य-वैभव, ये भोग-सामग्री, ये चार-चार सुंदर देवांगनाओं जैसी रानियाँ, उनकी हाव-भाव पूर्ण चेष्टाएँ भी इस सुमेरू कुमार को डिगा नहीं सकीं। अहो आश्चर्य ! महा आश्चर्य ! इसका क्या कारण है ? मैं अवश्य इसे जानकर रहूँगा।” ऐसे जिज्ञासा भाव से वह वहीं छुपकर खड़ा हो गया और उन सबकी बातें सुनने लगा। मानो सब प्रकार की कलाओं में पारंगत होने का उसका भाव फिर जागृत हो गया और अब वह जीवोद्धार की इस कला को भी सीखना चाहता है। कला बहत्तर पुरुष की जामें दो सरदार। एक जीव की जीविका एक जीव उद्धार ।। यह नीति है सत्पुरुषों के जीने की, पर विद्युच्चर को इससे पूर्व यह बात स्वयं तो समझ में आई ही नहीं, पिताजी के समझाने पर भी नहीं आई और जब समझ में आई तो बिना किसी के समझाये स्वयं समझ में आ गई। इसीलिए तो कहते हैं कि सभी कार्य अपने स्वसमय में अपनी योग्यता से होते हैं।
SR No.032272
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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