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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 रहे थे और धरती पर पड़े हुए मुनिराज के चरण चिन्हों को बारम्बार प्रेम से निहारकर नमस्कार करते थे। नगरजन इन दोनों भाइयों को देखकर कहते कि राजा सोमप्रभ महाभाग्यवान हैं कि उन्हें ऐसा श्रेष्ठ भाई मिला है। रत्नवृष्टि से चारों ओर बिखरे पड़े रत्नों को नगरजन इकट्ठे कर रहे थे। रत्नरूपी पाषाणों से भरे हुए आँगन को कठिनाई से पार करते हुए दोनों भाई राजमहल में आये।
मुनिराज ऋषभदेव को प्रथम आहारदान (पारणा) कराने से श्रेयांसकुमार का यश सारे जगत में फैल गया। मुनि को दान देने की विधि सर्वप्रथम राजा श्रेयांस ने जानी थी, तभी से दानमार्ग का प्रारम्भ हुआ। आहारदान की यह बात जानकर राजा भरत आदि को भी महान आश्चर्य हुआ; वे आश्चर्य से सोचने लगे कि मौन धारण किये हुए मुनिराज का अभिप्राय उन्होंने कैसे जान लिया ? देवों को भी बड़ा आनन्द हुआ और आनन्दित होकर उन्होंने श्रेयांसकुमार का सम्मान किया। महाराज भरत ने भी स्वयं अयोध्या से हस्तिनापुर आकर श्रेयांसकुमार का सम्मान किया
और अतिशय हर्ष व्यक्त करते हुए पूछा कि हे महादानपति ! यह तो बतलाइये कि मुनिराज के मन की बात आपने कैसे जान ली ? इस भरतक्षेत्र में पहले कभी नहीं देखी गई ऐसी यह दान की विधि आपने न बतलायी होती तो कौन जान पाता ? हे कुरुराज ! आज आप हमारे लिए गुरु समान पूज्य बने हैं, आप दानतीर्थ के प्रवर्तक हैं, महापुण्यवान हैं; इस दान की पूरी बात हमें बतलाइये।
श्रेयांसकुमार कहने लगे - हे राजन् ! यह सब मैंने उस पूर्वभव के स्मरण से जाना, जब मैं मुनिराज के साथ था। जिसप्रकार रोग दूर करनेवाली उत्तम औषधि प्राप्त करके मनुष्य प्रसन्न होता है और तृषातुर व्यक्ति पानी से भरा हुआ सरोवर देखकर आनन्दित होता है, उसीप्रकार मुनिराज का उत्कृष्ट रूप देखकर मैं अत्यन्त हर्ष-विभोर हो गया था और उसी समय