SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 19 आहारदान दिया। श्री ऋषभ मुनिराज खड़े-खड़े अपने करपात्र में ही आहार ले रहे थे। मोक्षमार्ग के साधक मुनिराज को हाथों की अंजुलि में श्रेयांसकुमार आदि ने इक्षुरस का (गन्ने के प्रासुक रस का) आहार दिया। वह दिन था वैशाख शुक्ला तृतीया, जो बाद में अक्षयतृतीया के नाम से प्रसिद्ध हुआ । उस समय देवगण आकाश से रत्नवृष्टि तथा पुष्पवृष्टि करने लगे । देवों के बाजे गम्भीर नाद से बजने लगे, सुगन्धित वायु बहने लगी और देवगण हर्षित होकर “धन्य दान.... धन्य पात्र.... धन्य दाता " ऐसी आकाशवाणी करने लगे । अहा, दान की अनुमोदना करके भी लोग महापुण्य को प्राप्त हुए । यहाँ कोई आशंका करे कि मात्र अनुमोदना करने से पुण्य की प्राप्ति किस प्रकार होगी ? उसका समाधान यह है कि पुण्य और पाप का बंध होने में मात्र जीव के परिणाम ही कारण हैं; बाह्य कारणों को तो जिनेन्द्रदेव ने 'कारण का कारण' (अर्थात् निमित्त) कहा है। जब पुण्य के साधनरूप से जीवों के शुभ परिणाम ही प्रधान कारण हैं, तब शुभ कार्य की अनुमोदना करनेवाले जीवों को भी उस शुभ फल की प्राप्ति अवश्य होती है। रत्नत्रयधारी मुनिराज अपने गृह में पधारे और उन्हें आहारदान दिया, उससे दोनों भाई परम हर्षित हुए और अपने को कृतकृत्य मानने लगे । इस प्रकार मुनियों को आहारदान की विधि प्रसिद्ध करके तथा दोनों भाइयों को प्रसन्न करके मुनिराज पुनः वन की ओर चल दिये। कुछ दूर तक दोनों भाई भक्ति-भीगे चित्त से मुनिराज के पीछे-पीछे गये और फिर रुकते - रुकते लौटने लगे। दोनों भाई बारम्बार मुड़-मुड़कर निरपेक्ष रूप से वन की ओर जाते हुए मुनिराज को पुनः पुनः देख रहे थे। वे दूर तक जाते हुए मुनिराज की ओर लगी हुई अपनी दृष्टि को तथा चित्तवृत्ति को मोड़ नहीं पाये । वे बारम्बार मुनिराज की कथा एवं उनके गुणों की स्तुति कर I
SR No.032272
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy