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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 मुझे जातिस्मरण होने से मैंने मुनिराज का अभिप्राय जान लिया। पूर्व के आठवें भव में जब मुनिराज विदेहक्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी में वज्रजंघ राजा थे, तब मैं उनकी श्रीमती नामक रानी था और तब राजा के साथ मैंने दो चारणऋद्धिधारी मुनियों को आहारदान दिया था; उन संस्कारों का स्मरण होने से मैंने आज भी उसी विधि से मुनिराज को आहारदान दिया। विशुद्धता सहित मुनिवरों को आहारदान देने का अवसर महान भाग्य से प्राप्त होता है।
दान का स्वरूप समझाते हुए श्रेयांसकुमार महाराजा भरत से कहते हैं कि स्व-पर के उपकार हेतु मन-वचनकाय की शुद्धिपूर्वक अपनी वस्तु योग्य पात्र को सम्मानपूर्वक देना उसे दान | कहते हैं। श्रद्धादि गुणों सहित वह दाता है; आहार, औषध, शास्त्र तथा अभय ये चारों वस्तुयें देय (दान में देने योग्य) हैं। जो रागादि दोषों से दूर है तथा सम्यक्त्वादि गुणों से सहित है, वह ही पात्र है। उसमें जो मिथ्यादृष्टि हैं, किन्तु व्रत-शीलयुक्त हैं, वह जघन्य पात्र हैं, अव्रती सम्यग्दृष्टि मध्यम पात्र है और व्रत शील सहित सम्यग्दृष्टि वह उत्तम पात्र है।
व्रत-शील से रहित मिथ्यादृष्टि पात्र नहीं, किन्तु अपात्र हैं। मोक्ष के साधक ऐसे उत्तम गुणवान मुनिराज को दिया गया आहारदान अपुनर्भव का (मोक्ष का) कारण होता है। यहाँ जो दिव्य पंचाश्चर्य (रत्नवृष्टि
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