SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 16 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 श्री ऋषभमुनि का हस्तिनापुर में प्रथम पारणा ___अचिन्त्य महिमावंत मुनिराज ऋषभदेव छह मास के ध्यान योग करने के उपरांत आहार चर्या को निकले। युग के आरम्भ में इससे पूर्व तो कोई मुनि हुए नहीं थे, इसलिए कोई आहार देने की विधि तो जानता नहीं था, अतः मुनिराज जहाँ भी पधारते वहाँ के लोग प्रसन्नता से आश्चर्य चकित होकर नमन करते और पूछते कि हे देव ! कहिये क्या आज्ञा है ? आप जिस कार्य हेतु यहाँ पधारे हैं वह हमें बतलाइये - आज्ञा दीजिये। अनेक लोग तो हाथी, रथ, वस्त्राभूषण, रत्न तथा भोजनादि सामग्री मुनिराज को अर्पण करने के लिये लाते और कोई तो अपनी युवा कन्या मुनिराज से विवाहने की इच्छा प्रकट करते। अरे रे ! कैसा अज्ञान और कैसी मूर्खता, मुनिराज चुपचाप चले जाते। वे किसलिये पधारे हैं और क्या करना चाहिये ? यह नहीं समझ पाने से लोग दिग्मूढ़ होकर कुछ तो अश्रुपूरित नेत्रों से मुनिराज के चरणों में लिपट जाते। आहार की योग्य विधि न मिलने से लगभग 6 माह से अधिक समय निराहार ही विहार करते रहे, मानो अन्य नवदीक्षित साधुओं को मुनिमार्ग की आहारचर्या का ही दिग्दर्शन कर रहे हों, ताकि उनके सुखपूर्वक यथार्थ मोक्षमार्ग सिद्धि हो सके। इसप्रकार अनेक नगरों तथा ग्रामों में विहार करते हुए एक दिन मुनिराज ऋषभदेव कुरुदेश के हस्तिनापुर नगर में पहुँचे। उस समय वहाँ के राजा सोमप्रभ और उनके लघु-भ्राता श्रेयांसकुमार थे। पूर्व के आठवें भव में आहारदान के समय जो श्रीमती' थी, वही यह श्रेयांसकुमार हैं। मुनिराज जिस दिन हस्तिनापुर पधारनेवाले थे, उसी दिन रात्रि के पिछले प्रहर में श्रेयांसकुमार ने पूर्वसंस्कार के बल से, पूर्वसूचनारूप सात उत्तम
SR No.032272
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy