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________________ 15 जैनधर्म की कहानियाँ भाग-23 सुविधि राजा, अच्युतेन्द्र, वज्रनाभि चक्रवर्ती के भव पूर्ण कर श्री ऋषभदेव तीर्थंकर हुआ। और श्रीमती रानी का जीव क्रमशः भोगभूमि आर्या, स्वयंप्रभदेव, केशव पुत्र, अच्युतेन्द्र, धनदत्त सेठ के भव पूर्ण कर राजा श्रेयांस हुए। इस बीच और भी छह भवों तक ये सभी जीव साथ-साथ विविध पर्यायें धारण करते हुए अंतिम भव में जा पहुँचे। जहाँ सबने जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार की और मोक्ष पधारे। भगवान आदिनाथ प्रभु के जीवन के और भी अनेक प्रसंग प्रेरणादायक हैं, जिन्हें विशेष जानने की जिज्ञासा हो वे चौबीस तीर्थंकर महापुराण अवश्य पढ़ें। यहाँ उनके आहार/प्रथम पारणा संबंधी प्रसंग को, आहारदान के संस्कार/चमत्कार/प्रक्रिया/विधि और फल को बताने के लक्ष्य से विशेषरूप से दिया जा रहा है, जिसे आप आगामी कथा में अवश्य पढ़ें। चिंतन बिन्दु -- मैं भगवान आत्मा ज्ञान-दर्शन स्वभावी हूँ। ज्ञाता-दृष्टा रूप रहना ही मेरा धर्म है। अत: अपने को ज्ञाता-दृष्टारूप, चैतन्यरूप, शुद्ध ज्ञानस्वरूप ही देखो, उस रूप ही अनुभव करो। अपने को शरीररूप, स्त्री-पुरुषरूप, निर्धन-अमीररूप मत देखो। धर्म किसी पररुप नहीं है, अत: वह मंदिर, मूर्ति, भगवान, शास्त्र आदि किसी के आधीन नहीं है। वह तो अपने ही आधीन है। इसप्रकार समस्त पर पदार्थों से राग-द्वेष-मोह को छोड़कर निज शुद्धात्मा का बारम्बार विचार करो। अपने आत्मस्वरूप में रमण करने का अभ्यास करो, रमण करो, तन्मय हो जाओ। बस ! वही आत्मध्यान है, निश्चय चारित्र है, धर्म है, सहजसुख प्राप्त करने का साधन है, उपाय है। - - पं. पन्नालालजी गिड़िया की डायरी से साभार
SR No.032272
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Premchand Jain, Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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