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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/१५ कषाय आदि पाप स्वयमेव नष्ट होने लगेंगे। कहा भी है "तुं रूचतां जगतनी रुचि आलसे सौ, तुं रीझतां सकल ज्ञायक देव रीझे।" चल भँवरे गुलाब की सुगन्ध लेने गुलाब के फूलों पर बसने वाले भँवरे ने विष्टा पर रहने वाले भँवरे से कहा कि हे भँवरे! तू मेरी ही जाति का है, गुलाब की सुगंध लेने मेरे पास चल! विष्टा का भँवरा विष्टा की दो गोलियाँ अपनी नाक में लेकर गुलाब के फूल पर जा बैठा। गुलाब के भँवरे ने उससे पूछा- क्यों भाई! कैसी सुगंध आ रही है? विष्टा के भँवरे ने उत्तर दिया- मुझे तो कुछ भी सुगंध नहीं आती, वहाँ के जैसी ही गंध है। उसका यह उत्तर सुनकर गुलाब के भँवरे ने विचार किया कि ऐसा कैसे हो सकता है? उसकी नाक में देखने पर उसे उसकी नाक में विष्टा की दो गोलियाँ दिखाई दीं। अरे, विष्टा की दो गोलियाँ नाक में रखकर आया है फिर सुगंध कहाँ से आये? -ऐसा कह कर उसने वे गोलियाँ निकलवा दीं। विष्टा की गोलियाँ निकलते ही वह विष्टा का भँवरा कहने लगा- अहो! ऐसी सुगंध तो मैंने कभी नहीं ली! इसीप्रकार अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करते हुए अज्ञानी जीवों से ज्ञानी गुरु कहते हैं कि- चल! तुझे तेरा सिद्धपद बतलाऊँ। तब वे अज्ञानी जीव रुचि में पुण्य-पाप की पकड़रूप दो गोलियाँ लेकर कभी-कभी ज्ञानी–तीर्थंकर के निकट धर्म सुनने जाते हैं, तब भी उसे अनादिकालीन मिथ्यावासना के कारण वैसा ही दिखाई देता है, जैसा उसने पूर्व में मान रखा था; परन्तु यदि एकबार बाह्यदृष्टि का आग्रह छोड़कर (पुण्य-पाप की रुचि छोड़कर), सरलता रखकर ज्ञानी का उपदेश सुने तो शुद्ध निर्मल दशा को प्राप्त हो जाये, उसे पुण्य-पाप की रुचि रूपी दुर्गंध का अनुभव छूटकर सिद्धपद की सुगंध का अपूर्व अनुभव हो। तब उसे ऐसा मालूम होगा कि अहो! ऐसा आत्मस्वभाव तो मैंने अभी तक कभी जाना ही नहीं था, मुझे तो अभी तक ऐसा कभी अनुभव ही नहीं हुआ। समयसार में श्री आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि हे भव्य! हम अपने सम्पूर्ण वैभव से तुझे तेरा शुद्ध आत्मस्वभाव बतलाते हैं, तू उसे जान!
SR No.032259
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2007
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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