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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१०/१४ अपमानजनक शब्द सुनकर तथा कुटुम्ब-परिवार सहित अपना घात देखकर तीव्र संक्लेश भाव से मरण को प्राप्त हुआ और सातवें नरक में गया, जहाँ असंख्यात असंख्य वर्षों का एक सागर होता है - ऐसे ३३ सागरों के लिए वह अनन्त दु:ख सागर में डूब गया। यह जीव अपने असली स्वरूप को भूल ने रूप तीव्रमोह के कारण महान दुःख को भोगता है। ज्ञानी निष्कारण करुणा से संबोधन करते हैं कि अनन्तानन्त काल में महान दुर्लभ मनुष्यपर्याय मिली, इस अवसर पर भी, जो विषयों में लीन रहते हैं, वे राख के लिये रत्न को जलाते हैं। यह जीव आधी आयु तो निद्रादि प्रमाद में गँवाता है, कुछ पाप में और जो समय शेष रहता है उसमें कदाचित् कुधर्म को धर्म मानने वालों के पास जाय तो वहाँ मिथ्या मान्यता दृढ़ करके जीवन बर्बाद कर देता है। उपरान्त इन्द्रियों का दासत्व, व्यसनों की गुलामी (बीड़ी, तम्बाकू आदि भी व्यसनों में गर्भित है), मिथ्यात्व तथा मानादि कषाय द्वारा जीव हित-अहित का भान भूल जाता है। जो लौकिक सज्जनता का भी ध्यान न रखे, अभक्ष्य-भक्षण, अन्याय, अनीति, द्रव्य-भाव हिंसा करना, झूठ बोलना, पर की निंदा आदि पाप भावों से न डरे, स्वच्छंद वर्तन करे तो दुर्लभ अवसर खोकर वह मात्र पाप को ही बाँधने वाला होता है। मिथ्यात्व और क्रोध, मान, माया, लोभादि कषाय की प्रवृत्ति से क्षण-क्षण में जो अपना भयानक भावमरण होता है, उससे बचने के लिये प्रथम तो सत्समागम से निर्मल तत्त्वज्ञान प्राप्त करना चाहिये। ___ सच्चा सुख अन्तर में है, उसको भूलकर दुःख को ही सुख मानने रूप झूठे उपाय द्वारा यह जीव अनादि से दुःख को ही भोगता है; इसलिये हे जीव! पुनः पश्चाताप करने का समय , न आये ऐसे तत्त्वज्ञान की प्राप्ति का प्रयत्न कर! प्रयत्न कर!! इससे शुद्ध स्वरूप में रुचि होगी और विषय
SR No.032259
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2007
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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