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________________ ६२ आप्तवाणी-५ यहाँ पर धर्मध्यान सिखलाते हैं, परन्तु वह बहुत ऊँचे प्रकार का है। कोई उसे हमारे पास से धारण कर ले तो अपना काम निकाल ले।। प्रश्नकर्ता : धर्मध्यान में जाने के बाद उसमें आगे बढ़े, वैसे-वैसे शुक्लध्यान की ओर बढ़ता है न? दादाश्री : नहीं। धर्मध्यान की ओर गया, यानी शुक्लध्यान की ओर खुद नहीं जा सकता। शुक्लध्यान ऐसा नहीं है कि खुद अपने आप प्रकट हो जाए। 'ज्ञानी पुरुष' या 'केवळज्ञानी' के दर्शन किए बिना शुक्लध्यान प्रकट नहीं होता। वह निर्विकल्प पद है। अतीन्द्रिय पद है। यानी और किसी भी प्रकार से होगा नहीं। हम आपको धर्मध्यान भी देते हैं और शुक्लध्यान भी देते हैं। ज्ञानी की विराधना प्रश्नकर्ता : यह बोलने-करने में, आपको प्रश्न पूछने में कहीं पर अविनय हो जाता है। अंतर में ऐसा अविनय करने का कोई भाव नहीं होता, फिर भी बोलने-करने में अविनय हो जाता हो तो वह हम विराधना तो नहीं करते हैं न? दादाश्री : बात करते हुए आप विराधक बनो तो हम बात बंद कर देते हैं। क्योंकि हम जानते हैं कि यह तो उल्टे रास्ते चला। प्रश्नकर्ता : परन्तु हमसे आपकी विराधना हो जाए तो? दादाश्री : हमारी विराधना करने के आपमें परमाणु ही नहीं हैं। ऐसी तो हमें शंका ही उत्पन्न नहीं होती। पूरा दिन जिनकी आराधना करते हो, उसकी विराधना होगी ही नहीं न! 'दादा' की आराधना की, वही 'शुद्धात्मा' की आराधना करने के बराबर है और वही परमात्मा की आराधना है और वही मोक्ष का कारण है। आत्मसुख का लक्षण दादाश्री : सुख आत्मा में से आता है या पुद्गल में से?
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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