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________________ आप्तवाणी-५ ६ प्रश्नकर्ता : आत्मा में से। दादाश्री : वह आत्मा का सुख है या पुद्गल का सुख है, वह कैसे पता चलेगा? प्रश्नकर्ता : अतीन्द्रिय अनुभव होगा न? दादाश्री : वह सबको पता नहीं होता। आत्मा के सुख का लक्षण अर्थात् निराकुलता रहती है। थोड़ी भी आकुलता-व्याकुलता हो तो समझना की दूसरी जगह पर उपयोग है। मार्ग भूल गए। बाहर से बेचैन होकर आया और पंखा चलाए तो बहुत अच्छा लगता है। उसे शुद्ध उपयोग नहीं कहते। उसे भी जानना चाहिए। अशाता (दुःख-परिणाम) वेदनीय हो, उसे भी जानना चाहिए और निराकुलता भी रहनी चाहिए। दोनों को जानना चाहिए। शाता (सुख-परिणाम) वेदनीय के साथ एकाकार हो जाए, वह भूल कहलाती है। वेदनीय उदय-ज्ञानजागृति प्रश्नकर्ता : शाता वेदनीय में मिठास तो आती है न? दादाश्री : मिठास तो आती है परन्तु मिठास को जानना चाहिए। उस घड़ी ज्ञान हाज़िर रहना चाहिए कि यह शाता वेदनीय है और यह निराकुलता है। अशाता वेदनीय आए, तो अशाता वेदनीय है ऐसा जानता है। बाह्य में अशाता होती है और अंतर में निराकुलता होती है! सुखी होना, दुःखी होना अर्थात् भोक्ता बनना। कर्ता और भोक्ता सभी में कर्म बँधते हैं और ज्ञाता में कर्म नहीं बँधते। हम जानते हैं कि अभी 'चंदूभाई' को अशाता बरत रही है। सुखी या दुःखी होने का अर्थ क्या है? आज मरण आए या पच्चीस साल बाद आए, उसमें हर्ज नहीं है। प्रश्नकर्ता : मृत्यु का भय नहीं है, परन्तु मृत्यु के समय जो दुःख होता है, उसका डर लगता है।
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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