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आप्तवाणी-५
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प्रश्नकर्ता : सुबह उठे तब से दुकान और ग्राहक याद आते हैं, उसमें धर्मध्यान में किस तरह रहें?
दादाश्री : उसमें किसीका दोष नहीं है। बरबस करना पड़ता है। प्रश्नकर्ता : इसमें से छूटे किस तरह? दादाश्री : पुस्तक में आपने नहीं पढ़ा? प्रश्नकर्ता : पूरा नहीं पढ़ा है।
दादाश्री : अपने आप छूटा जा सके ऐसा नहीं है। जो बंधनों में से मुक्त हो चुके हैं, वे छुड़वा सकते हैं। जो खुद ही यदि डूब रहा हो, वह दूसरों को नहीं तार सकेगा। जिसे मोक्ष प्राप्त हो गया हो, वह दूसरों को मोक्ष दे सकता है।
अभी लगभग दस प्रतिशत लोग मनुष्य गति में वापिस आएँगे। दूसरे सब तिर्यंचगति के मेहमान हैं।
प्रश्नकर्ता : जैन धर्म और मनुष्यगति मिले, वैसा निश्चय किया हो
तो?
दादाश्री : वह तो किसका निश्चय नहीं होगा? परन्तु आर्तध्यान और रौद्रध्यान हों तो तिर्यंच में ही जाएगा न? रौद्रध्यान मतलब क्या कि सामनेवाले को किसी भी प्रकार का दुःख पहुँचाना और आर्तध्यान अर्थात् खुद को ही पीड़ा होती है। दूसरे को किंचित् मात्र दु:खी नहीं करता।
कितने भी निश्चय करे, कितना भी करे, भटकता रहे, फिर भी कुछ नहीं होगा। अनंत जन्मों से भटक ही रहा है न? जब 'मुक्त पुरुष' मिले तब सुनता रहा, परन्तु उनकी आज्ञावश नहीं रहा। आज्ञावश रहना, वही धर्म है। 'मुक्त पुरुष' स्वयं मोक्ष में ले जा सकते हैं। वे 'लाइसेन्स सहित' हैं। 'ज्ञानी पुरुष' के पास से बात को समझ लेना है।
अपने यहाँ पर दो मार्ग हैं : 'रिलेटिव' मार्ग और 'रियल' मार्ग। कई लोग धर्मध्यान सिखलाते हैं परन्तु किसीको आता नहीं है। इसलिए हम