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आप्तवाणी-५
तब भी दूसरा गुनाह लगता है । 'यहाँ करम पूरे भोग लो' ऐसा कहते है
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प्रश्नकर्ता : ज़िन्दगी में सुखी होने के लिए क्या करना चाहिए? दादाश्री : तुझे कैसा सुख चाहिए? विनाशी चाहिए या 'इटरनल'
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चाहिए?
प्रश्नकर्ता : 'इटरनल' (शाश्वत) ।
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दादाश्री : यदि 'इटरनल' सुख चाहिए तो तू यहाँ पर आना और विनाशी सुख चाहिए तो उसका मैं तुझे रास्ता बता दूँगा । यहाँ कभी - कभी आते रहना और दर्शन कर जाना । मैं आशीर्वाद देता रहूँगा। तेरा विनाशी सुख बढ़ता जाएगा और यदि 'इटरनल' सुख चाहिए तो उसके लिए मेरे पास आना। जिसके मिलने के बाद तेरे पास से वह सुख जाएगा ही नहीं तुझे 'इटरनल' सुख नहीं चाहिए न ?
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प्रश्नकर्ता : शाश्वत सुख चाहिए। मैं आऊँगा आपके पास।
मोक्षमार्ग
अभी इस काल में मोक्षमार्ग रहा ही नहीं । एक रत्तीभर भी नहीं। जैसे कि अलोप हो गया है। अभी तो संसारमार्ग भी सच्चा नहीं रहा ।
प्रश्नकर्ता : मोक्षमार्ग में क्रिया की ज़रूरत है ?
दादाश्री : मोक्षमार्ग में ऐसी क्रिया नहीं होती है, वहाँ तो ज्ञानक्रिया की जाए, तब मोक्ष में जाया जाएगा। अज्ञानक्रिया से मोक्ष नहीं होता । पूरा दिन सामायिक करे फिर भी मोक्ष नहीं होता, क्योंकि क्रिया 'मैं करता हूँ' ऐसा कहता है। ‘मैं कर रहा हूँ' वह बंधन है। इस काल में तो फिर से मनुष्य जन्म मिले तो भी बहुत अच्छा । रौद्रध्यान और आर्तध्यान के अलावा और कुछ किया ही नहीं है। नर्कगति के जीव भी कम है। सिर्फ ‘रौद्रध्यानवाले' ही नर्कगति में जाएँगे। थोड़ा आर्तध्यान और धर्मध्यान होगा, तब भी मनुष्य में आ पाएँगे। यह तो धर्मध्यान भी नहीं जानता है । धर्मध्यान को समझ ले तो भी काम हो जाए ।