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________________ ५४ आप्तवाणी-५ प्रश्नकर्ता : 'शुद्धात्मा' का लक्ष्य नहीं जाए तो वह 'समभाव से निकाल' किया कहा जाएगा? दादाश्री : दूसरी चीज़ों में 'इन्टरेस्ट' हो तो शुद्धात्मा का लक्ष्य चूक जाते हैं। हमें जिस चीज़ में रुचि हो तो वह चीज़ मिले बगैर तो रहेगी ही नहीं न! कढ़ी ढुल गई हो, तो भी शोर मचा देते हैं। क्योंकि उसको उसमें ‘इन्टरेस्ट' हैं। अंत में ये रुचियाँ ही निकाल देनी हैं। चीजें नहीं निकालनी हैं। चीजें निकालने से जाएँगी नहीं। पूरा जगत् चीजें निकालने के लिए माथापच्ची करता है। अरे, चीजें नहीं जाएँगी, वे तो नसीब में लिखी हुई हैं। चीज़ों के प्रति रुचि निकाल देनी है। प्रश्नकर्ता : क्रमिक और अक्रम में फर्क तो गुरुकृपा का ही है न? दादाश्री : हाँ, गुरुकृपा ही है बस। यहाँ तो गुरु जैसी कोई वस्तु ही नहीं होती। गुरु अर्थात् कौन? गुरु किसे कहते हैं? कि जो गुरुकिल्ली सहित हों। वे गुरु आपको तार सकेंगे और बिना गुरुकिल्लीवाले हों तो वे गुरु भारी कहलाते हैं। भारी अर्थात् खुद डूबते हैं और हमें भी डूबो देते हैं। वर्ना, यहाँ तो गुरु की ज़रूरत ही नहीं है। मुझे कुछ लोग पूछते हैं कि, 'हमने पहले गुरु बनाए हुए हैं तो क्या हमें उन्हें छोड़ देना है?' तब उनसे कहता हूँ, 'नहीं, उन्हें रखना।' व्यवहार के गुरु तो चाहिए ही न? और यहाँ तो अक्रम में भगवान की सीधी ही कृपा उतरती है! चौदह लोक के नाथ की सीधी ही कृपा उतरती है। प्रश्नकर्ता : ज्ञान प्रकट होता है, तब क्या होता है? दादाश्री : ज्ञान प्रकट होता है, फिर किसी जगह पर ठोकर नहीं लगती (चिंता, कषाय, मतभेद नहीं होते)! प्रश्नकर्ता : और अंदर क्या फ़र्क पड़ता है? दादाश्री : अंदर अपार सुख बरतता है, दुःख ही नहीं होता। दुःख, चिंता कुछ भी स्पर्श नहीं करता!
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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