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________________ आप्तवाणी-५ ५३ दादाश्री : वे देहधारी नहीं होते हैं। वे तो परमात्मा कहलाते हैं और ये सिद्ध तो मनुष्य कहलाते हैं। आप उन्हें गालियाँ दो तो वे घेर लेंगे, नहीं तो आपको श्राप देंगे। प्रश्नकर्ता: सिद्ध की जो बात है, वह तो प्रकाश अथवा तेज स्वरूप से है न? दादाश्री : हाँ। तेज स्वरूप से होते हैं। उन्हें एक ही शब्द, ‘केवळ’ (एब्सोल्यूट, कैवल्य) होता है । उनका स्वरूप तो केवळ-दर्शन, केवळज्ञान, अनंत-सुख और परम ज्योति स्वरूप होता है, स्व- पर प्रकाशक होता है। वे खुद को प्रकाशित करते हैं और पूरे ब्रह्मांड को प्रकाशित करते हैं। शुद्धात्मा का दर्शन प्रश्नकर्ता : शुद्धात्मा को किस प्रकार देख सकते हैं? दादाश्री : ऐसा है न कि शुद्धात्मा देखना, उसका अर्थ क्या है? यह सोने की डिबिया है, उसके अंदर रखा हुआ हीरा एक बार खोलकर मैं दिखा देता हूँ, फिर डिब्बी बंद कर देता हूँ, उससे हीरा चला नहीं जाता। आपके लक्ष्य में रहता है कि इसमें हीरा ही है, क्योंकि आपने उसे देखा था। अरे, आपकी बुद्धि ने उस दिन 'एक्सेप्ट' किया था । हमने 'ज्ञान' दिया, उस घड़ी आपके मन-बुद्धि- चित्त और अहंकार सभी 'एक्सेप्ट' किया। उसके बाद शंका खड़ी ही नहीं होती । प्रश्नकर्ता : आपने रास्ता बताया, परन्तु उस रास्ते पर हम नहीं चलें तो क्या होगा? दादाश्री : नहीं चलें, ऐसा हो सकता है, परन्तु जाने के लिए खुद की इच्छा चाहिए। खुद को नहीं जाना हो तो वह उल्टे रास्ते जाएगा, परन्तु खुद को जाना ही है और दूसरे कर्म अंतराय डालते हों, तो उसमें आपत्ति नहीं है। खुद को जाना है, ऐसा नक्की हो तो 'ज्ञानी पुरुष' के आशीर्वाद काम करते हैं। कर्म लाख आएँ फिर भी 'ज्ञानी पुरुष' की कृपा से वे उखड़ जाएँगे, परन्तु जिन्हें खुद को ही टेढ़ा करना हो, उसका उपाय नहीं है।
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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