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आप्तवाणी-५
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प्रश्नकर्ता : जिस जीव को आत्मसाक्षात्कार हुआ हो, वह जीव दूसरे जीव को आत्मसाक्षात्कार हुआ है या नहीं वह परख सकता है या नहीं?
दादाश्री : परख सकता है न! ऐसा है न, हम सब्ज़ी बाज़ार में सब्ज़ी लेने जाते हैं तब ‘कौन - सी सब्ज़ी अच्छी है', ऐसा परख लेते हैं न, वैसे ही इसका भी पता चल जाता है ।
प्रश्नकर्ता : आप जब भगवान कहते हैं, तब किसे संबोधित करते हैं ? महावीर को ?
दादाश्री : नहीं, महावीर को नहीं। भगवान अर्थात् जो अंदर आत्मा है, परमात्म स्वरूप है । जिस आत्मा को हम परमात्मा कहते हैं, महावीर भी वे ही हैं। महावीर नामधारी हैं। नामधारी के बारे में मैं नहीं कहना चाहता। नामधारी आएँ तो एक को पसंद आएगा और दूसरे का सिर दुखने लगेगा। मूल भगवान से सिर नहीं दुखता!
प्रश्नकर्ता : 'पंचम दीवो शुद्धात्मा साधार', वे कैसा साधार कहना चाहते हैं?
दादाश्री : अभी तक चेतन का आधार ' पुद्गल' था, अब चेतन का आधार ‘शुद्धात्मा' हो गया । इसलिए खुद अपना ही आधार बन गया, अब पुद्गल के आधार पर नहीं है। पूरी दुनिया पुद्गल के आधार पर है।
बर्तन में घी भरा हो और उस पंडित को विचार आए कि पात्र के आधार पर घी है या घी के आधार पर पात्र है । ऐसा विचार पंडित को आता है, दूसरे अबुध लोगों को नहीं आता । पंडित का दिमाग़ तेज़ होता है न! उस पंडित ने पता लगाने के लिए बर्तन को उल्टा किया, तब उसे समझ में आया कि अरे, यह तो बर्तन के आधार पर घी था । उसी प्रकार इन लोगों में पुद्गल के आधार पर आत्मा रहा हुआ है। खुद, खुद पर आधारित हो, ‘मैं' पुद्गल के आधार पर नहीं, ऐसा समझ में आ जाए तब शुद्धात्मा 'साधार' होता है ! पुद्गल के आधारी को भगवान ने निराधार कहा है, अनाथ कहा है और आत्मा के आधारी को सनाथ कहा है । साधार हो जाने के बाद कुछ भी बाकी ही नहीं रहा न !