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________________ आप्तवाणी-५ प्रश्नकर्ता : काल 'डिस्टर्ब' करता है, वह समझ में नहीं आया। I दादाश्री : यह काल 'डिस्टर्ब' नहीं कर रहा होता न तो यह जगत् बहुत सुंदर लगता । ऐसा काल आए, तब नीचे अधोगति में ले जाता है बाकी कुदरत का अधोगति में ले जाने का काम नहीं है । कुदरत का स्वभाव तो निरंतर उर्ध्वगति में ही ले जाने का है। T ३२ एक काल ऐसा था कि सेठ लोग नौकरों को दुःख देते थे, और अब नौकर सेठ लोगों को दुःख देते हैं ऐसा काल आया है! काल की विचित्रता है! नॉर्मेलिटी में हो तो सबकुछ सुंदर कहलाएगा। सेठ नौकर को दुःख ही नहीं दे और नौकर ऐसी तोड़फोड़ ही नहीं करे । यह तो खुद सिर्फ मान बैठा है। बाप हुआ वह भी मान बैठा है कि मैं बाप हूँ, परन्तु बेटे को दो घंटे खूब गालियाँ दे, तो पता चल जाएगा कि कितने दिनों का बाप है ! ठंडा ही हो जाएगा न ! सचमुच का बाप होता, तब तो जुदा होते ही नहीं । पापों का प्रायश्चित प्रश्नकर्ता : अपने किए हुए पाप भगवान के मंदिर में जाकर हर रविवार को क़बूल कर लिए हों तो फिर पाप माफ़ हो जाएँगे न? दादाश्री : इस तरह यदि पाप धुल जाते हों न तो कोई बीमारवीमार होता ही नहीं न? फिर तो कोई दुःख होता ही नहीं न? परन्तु यह तो अपार दुःख पड़ता है । माफ़ी माँगने का अर्थ क्या है कि आप माफ़ी माँगो तो आपके पाप का मूल जल जाता है । इसलिए वह फिर से फूटता नहीं, परन्तु उसका फल तो भुगतना ही पड़ता है न ? प्रश्नकर्ता : कोई-कोई जड़ तो फिर से फूट निकलती हैं। दादाश्री : ठीक से जला नहीं हो, तो वापिस फूटता रहता है। वर्ना, जड़ भले कितनी ही जल गई हो, फिर भी फल तो भुगतने ही पड़ते हैं । भगवान को भी भुगतने पड़े ! कृष्ण भगवान को भी यहाँ तीर लगा था!
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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