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आप्तवाणी-५
सबकुछ पहुँच चुका है। ये 'दादा' तो आपके भाव को ही देखते हैं, क्रिया को नहीं देखते।
समझ की श्रेणियाँ प्रश्नकर्ता : सामनेवाला दोषित नहीं दिखे उसके लिए, 'प्रकृति करती है', उस समझ से काम लेता हूँ।
दादाश्री : वह 'फर्स्ट स्टेज' की बात है, परन्तु अंतिम बात में ऐसा कुछ भी नहीं होता है। आत्मा इसका जानकार ही है। और कुछ भी नहीं है। उसके बदले मान बैठा है कि सामनेवाले ने ही किया! 'रोंग बिलीफ़' ही है सिर्फ।
प्रश्नकर्ता : एकलौते बेटे को मार डाला...
दादाश्री : वह मरता ही नहीं। जो मूल स्वभाव है, जो 'मूल वस्तु' है, वह मरता ही नहीं है। ये तो जो नाशवंत चीजें हैं, उनका नाश होता ही रहता है।
जगत् निर्दोष ही दिखता है। जिसकी समझ कम हो, वह हिसाब लगाकर कहता है 'हिसाब होगा।' नहीं तो, 'मेरा बेटा है' ऐसा होगा ही नहीं न!! भगवान की भाषा समझ में आ जाए, उसे तो पूरा जगत् निर्दोष ही दिखेगा न? कोई फूल चढ़ाए तो भी निर्दोष दिखेगा और पत्थर मारे तो भी निर्दोष दिखेगा! एक ने मार डाला और एक ने बचाया। परन्तु दोनों निर्दोष दिखेंगे, विशेषता नहीं दिखेगी उसमें।
आपको हमारे 'ज्ञान' की समझ से समझना हो तो 'व्यवस्थित' है, 'हिसाब है', ऐसा आपको समझना पड़ेगा। उससे आगे जाओगे तब 'मूल वस्तु' समझ में आएगी। बचानेवाला कोई बचा ही नहीं सकता, मारनेवाला कोई मार नहीं सकता। सबकुछ कुदरत का काम है यह।' 'व्यवस्थित' है, परन्तु 'व्यवस्थित' के अवलंबन के रूप में यह कौन कर रहा है? उस पूरे भाग को खुद जानता है कि सारी कुदरत की ही क्रियाएँ हैं। कुदरत जीव मात्र का हित ही कर रही है, परन्तु उसे यह काल 'डिस्टर्ब' करता है।