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________________ आप्तवाणी-५ २३ प्रकृति तो अभिप्राय भी रखेगी और सबकुछ रखेगी। परन्तु हमें अभिप्राय रहित होना चाहिए। हम अलग, प्रकृति अलग, इन 'दादा' ने वह अलग कर दिया है। फिर आप 'अपना' रोल अलग से निभाओ। इस ‘पराई पीड़ा' में नहीं उतरना है। वीतरागों की रीति वीतरागों का मत ऐसा है कि "ये ऐसे हैं', इस प्रकार अभिप्राय बाँधा वह उसका गुनाह है।" 'हम' सिर्फ सावधान करना जानते हैं। फिर आपको टेढ़ा करना हो तो उसका कुछ कर ही नहीं सकते न। वह तो भगवान महावीर के समय में भी उनका शिष्य गोशाला बदल गया था। गोशाला भगवान के सामने व्याख्यान देते हुए कहता है, 'मैं भी महावीर ही हूँ।' इसमें महावीर क्या करें? उन दिनों ऐसे लोग पैदा होते थे, तो आज दो लोग ऐसे पैदा हो जाएँ तो उन्हें हमलोग कुछ नहीं कह सकते? और वैसे हों तब ही अच्छा न? यह वीतरागों का विज्ञान तो कैसा है? हमने अभिप्राय बाँधा कि 'ये गलत हैं और ये भूलवाले हैं, तो वहाँ पकड़ में आ गए! अभिप्राय तो देना ही नहीं है, परन्तु अपनी दृष्टि भी नहीं बिगड़नी चाहिए! मैं 'सुपरफ्लुअस' (नाटकीय) रहता हूँ। यहाँ कितने सारे महात्मा हैं, उन सभी की हक़ीक़त मैं जानता हूँ, परन्तु मैं कहाँ दख़ल करूँ? दुरुपयोग करने जैसा यह 'ज्ञान' नहीं है। प्रश्नकर्ता : भगवान को 'क्या गलत और क्या सही' ऐसा है ही नहीं, फिर प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। दादाश्री : वह भगवान की दृष्टि में है। यहाँ प्रश्न खड़ा होता है। हम अभी जब तक भगवान हुए नहीं हैं, तब तक हम गुनहगार हैं। प्रश्नकर्ता : परन्तु फिर तो सही क्या और गलत क्या, वह प्रश्न गौण हो जाता है न?
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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