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________________ आप्तवाणी-५ भी निकले। उसके साथ हमारा लेना-देना नहीं है। भगवान क्या कहते हैं कि, 'तू तेरा बिगाड़ना मत । ' २२ मनुष्यों का स्वभाव कैसा होता है कि जैसी प्रकृति वैसा खुद हो जाता है। जब प्रकृति नहीं सुधरती, तब कहेगा, 'रहने दो न !' अरे, नहीं सुधरे तो कोई हर्ज नहीं, तू तेरा अंदर सुधार न ! फिर तुम्हारी 'रिस्पोन्सिबिलिटी' (जिम्मेदारी) नहीं है ! इतनी हद तक का यह 'साइन्स' है!!! बाहर कैसा भी हो, उसकी 'रिस्पोन्सिबिलिटी' ही नहीं है । इतना समझे तो हल आ जाए। आपको समझ में आया, मैं क्या कहना चाहता हूँ, वह? प्रश्नकर्ता : हाँ, समझ में आया । दादाश्री : क्या समझ में आया? प्रश्नकर्ता : सिर्फ देखना है, उसके साथ तादात्म्य नहीं होना है । दादाश्री : ऐसा नहीं । तादात्म्य हो जाए, फिर भी हमें तुरन्त कहना चाहिए, 'ऐसा नहीं होना चाहिए।' यह तो सब गलत है ! प्रकृति तो सबकुछ करेगी, क्योंकि वह ग़ैरजिम्मेदार है । परन्तु इतना बोल दिया, तो आप जिम्मेदारी में से छूट गए। अब इसमें कोई परेशानी हो ऐसा है? प्रश्नकर्ता : परेशानी नहीं है, परन्तु जब क्रोध आता है उस समय भान नहीं रहता। दादाश्री : अपना 'ज्ञान' ऐसा है कि भान में रखता है । प्रतिक्रमण करता हैं, सभी कुछ करता हैं। आपको भान रहता है या नहीं? प्रश्नकर्ता : रहता है, दादा। दादाश्री : हर समय रहता है ? प्रश्नकर्ता : हाँ, हरेक समय रहता है। दादाश्री : अपना 'ज्ञान' ऐसा है कि निरंतर जागृति, और जागृति में ही रखे, और जागृति ही आत्मा है ।
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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