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________________ आप्तवाणी-५ २१ दादाश्री : वळगण आत्मा को लगती ही नहीं। यह तो सब अहंकार को ही है। अहंकार है तो आत्मा नहीं है और आत्मा है तो अहंकार नहीं है। प्रश्नकर्ता : तो आत्मा को मोक्ष देना है न? दादाश्री : आत्मा मोक्ष में ही है। उसे द:ख ही नहीं है न! जिसे दुःख हो, उसका मोक्ष करना है। खुद बँधा हुआ भी नहीं है, मुक्त ही है। यह तो अज्ञान से मानता है कि 'बँधा हुआ हूँ' और 'मुक्त हूँ' उसका ज्ञान हो जाए तो मुक्त हुआ। वास्तव में बँधा हुआ भी नहीं है। वह मान बैठा है। लोग भी मान बैठे हैं, वैसे ही यह भी मान बैठा है। लोगों में स्पर्धा है यह सब। 'मेरा-तेरा' के भेद डल गए, वे बंधन को मजबूत करते हैं। प्रश्नकर्ता : दादा, ऐसे एकदम से उतरना ज़रा मुश्किल हो जाता है न? दादाश्री : इसलिए ही तो ये सब अंतराय आते हैं न! समकित नहीं होता, उसका कारण ही यह है। इसलिए ही तो कहा है कि, आत्मज्ञान जानो! आत्मा क्या है, उसे जानो। नहीं तो छूटा नहीं जा सकेगा! शास्त्रकारों ने बहुत-सारे उदाहरण दिए हैं, परन्तु वे समझ में आएँ तब न? आत्मज्ञानी हों, वहीं पर छुटकारा मिलता है। ज्ञानी समझाते हैं कि, 'कितने भाग में तू कर्त्ता है।' वह तो ऐसा मानता है कि, "सामायिक, जप, तप, योग 'मैं' ही करता हूँ। 'मैं' ही आत्मा हूँ और 'मैं' ही यह करता हूँ।" अब 'करता है' शब्द आया, तब से ही वह मिथ्यात्व है ! 'करोमि, करोसि और करोति' वह सब मिथ्यात्व में है! प्रकृति करे टेढ़ा : पुरुष करे सीधा प्रकृति टेढ़ा करे, परन्तु तू अंदर सीधा करना। प्रकृति क्रोध करने लगे तब 'हमें 'चंदूभाई' से क्या कहना पड़ेगा? 'चंदूभाई यह गलत हो रहा है, ऐसा नहीं होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए।' यानी 'आपका' काम पूरा हो गया! प्रकृति तो कल सुबह उल्टी भी निकले और सीधी
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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