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________________ १७० आप्तवाणी-५ प्रश्नकर्ता : नमस्कार और वंदन, ये दोनों समान कक्षा के हैं या अलग-अलग भाव हैं? दादाश्री : दोनों अलग-अलग भाव से हैं। नमस्कार तो बहुत ऊँची चीज़ है। वंदन तो, यों ही ऐसे हम सिर झुकाकर खड़े-खड़े हाथ जोड़ें, उसे वंदन कहते हैं और नमस्कार तो कितने ही अंग जमीन पर स्पर्श होते हैं तब होता है। अपने में साष्टांग नमस्कार कहते है न? अर्थात् आठों ही अंग ज़मीन को स्पर्श करें, तब वह नमस्कार माना जाता है। परन्तु एक बार ही यदि सच्चे दिल से करें न, तो भी बहुत हो गया! प्रश्नकर्ता : ज्ञान बेचा जा सकता है? कुछ लोग उनके प्रवचनों की टिकिट रखते हैं। दादाश्री : ऐसा है कि जहाँ पैसों का लेन-देन है, वहाँ ज्ञान है ही नहीं। वह संसारी ज्ञान होता है, वह मोक्ष का ज्ञान नहीं है। प्रश्नकर्ता : जीवों का ऐसा कोई क्रम है कि मनुष्य में आने के बाद मनुष्य में ही आएगा या और कहीं जाता है? दादाश्री : हिन्दुस्तान में मनुष्यजन्म में आने के बाद चारों ही गतियों में भटकना पड़ता है। फ़ॉरेन के मनुष्यों को ऐसा नहीं है। उनमें दो-पाँच प्रतिशत अपवाद होते हैं, बाकी के सभी ऊँचे चढ़ते ही रहते हैं। प्रश्नकर्ता : ये लोग जिन्हें विधाता कहते हैं, वे किसे कहते हैं? दादाश्री : वे कुदरत को ही विधाता कहते हैं। विधाता नाम की कोई देवी नहीं है। साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स (वैज्ञानिक सांयोगिक प्रमाण) वही विधाता है। अपने यहाँ लोगों ने नक्की किया है कि छठी के दिन विधाता लेख लिख जाते हैं। विकल्पों से यह सब ठीक है और वास्तविक जानना हो, तो यह ठीक नहीं है। प्रश्नकर्ता : निर्दोष बालक को शारीरिक वेदना भुगतनी पड़ती है, उसका क्या कारण है?
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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