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________________ आप्तवाणी-५ १६९ सारे राग-द्वेष बंद करके सामायिक में बैठे, तो वे किसकी सामायिक करेंगे? न तो आत्मा जाना, न ही मिथ्यात्व समझते हैं ! जो मिथ्यात्व समझता है उसे समकित हुए बगैर रहेगा ही नहीं। यानी सामायिक करने के लिए सेठ बैठे हो, परन्तु उन्हें और कुछ आता नहीं है, तो वे क्या करें? खुद का एक घेरा बना देते हैं और दूसरे कोई विचार आएँ, दुकान के, लक्ष्मी के, विषय के, तो उन्हें घेरे से बाहर हाँकते रहते हैं! जिस तरह एक घेरे में गाय के बछड़े घुस जाते हों, कुत्ते घुस जाते हों, तो उन्हें हाँकते रहते हैं और घेरे में घुसने नहीं देते हैं, उसे सामायिक कहते हैं। फिर भी वह सामायिक हो जाती है, क्योंकि आर्तध्यान और रौद्रध्यान उसमें नहीं होते हैं। प्रश्नकर्ता : आर्तध्यान और रौद्रध्यान उसमें नहीं होते हैं, तब फिर समता ही कहलाएगी न? दादाश्री : परन्तु आर्तध्यान और रौद्रध्यान जाते नहीं है। वे तो रहते ही हैं। इसलिए सामायिक करने से पहले यह विधि करनी पड़ती है, 'हे भगवान! यह चंदूलाल, मेरा नाम, यह मेरी काया, यह मेरी जात, मेरा मिथ्यात्व, सबकुछ आपको अर्पण करता हूँ। अभी मुझे यह सामायिक करते समय वीतराग भाव दीजिए।' ऐसे विधिपूर्वक करें तो काम होगा। प्रश्नकर्ता : तीर्थंकर बनने के लिए इस काल में कैसे गुणों की ज़रूरत पड़ेगी? दादाश्री : निरंतर जगत् कल्याण की भावना, दूसरी कोई भी भावना नहीं होती। खाने के लिए जो मिले, सोने के लिए जो मिले, ज़मीन पर सोने को मिले, फिर भी निरंतर भावना क्या होती है? जगत् का किस तरह कल्याण हो। अब वह भावना उत्पन्न किसे होती है? खुद का कल्याण हो चुका हो, उसे यह भावना उत्पन्न होती है। जिसका खुद का कल्याण नहीं हुआ हो, वह जगत् का कल्याण किस तरह करेगा? भावना करे तो होगा। 'ज्ञानी पुरुष' मिल जाएँ तो उसे उस 'स्टेज' में ला देते हैं, और स्टेज में आने के बाद उनकी आज्ञा में रहे तो भावना करना सीख जाता है।
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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