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आउटर बुद्धि (बर्हिबुद्धि) मिकेनिकल है और इनर बुद्धि (आंतरबुद्धि) स्वतंत्र बनानेवाली है। वह बुद्धि भी मिकेनिकल है। कोई ऊपरी (बॉस, वरिष्ठ मालिक) ही नहीं हैं, वैसा स्वतंत्र बनाती है। मिकेनिकल बुद्धि से संसारी चीजें मिलती हैं।
_ 'मैं कौन हूँ?' 'मैं किसके आधार पर हूँ?' वह आधार-आधारी का पता चलना आवश्यक है। जगत् में क्या करने जैसा है, क्या नहीं करने जैसा है, और क्या जानना है और क्या नहीं जानना है, इतना ही समझना
विरह अर्थात् चैन ही नहीं पड़े, तब संसार से छूटा जा सकता है। विरह ज्ञानी का होना चाहिए। उससे भीतर बिजली उत्पन्न होती है और "स्वरूप' तेज़वान बनता है! विरह तो बहुत उत्तम वस्तु कहलाती है। ज्ञानी से बहुत काल का परिचय हो जाए, उसे विरह महसूस होता है। जिसे मोक्ष में जाना हो उसे इस विरह की वेदना जगती है!
हम सबका मूल स्वरूप सच्चिदानंद स्वरूप है। 'ज्ञानी पुरुष' रोंग बिलीफ़ फ्रेक्चर कर देते हैं और राइट बिलीफ़ बैठा देते हैं। फिर 'मैं आत्मा ही हूँ' उसका भान होता है, ज्ञान होता है और निरंतर उसका लक्ष्य रहता है! उसके बाद माया जाती है और मोह जाता है।
गौतम स्वामी को महावीर स्वामी पर जो मोह था, उसे प्रशस्त मोह कहा जाता है। उससे संसार के सभी मोह खत्म हो जाते हैं और मोक्ष अवश्य मिलता ही है। प्रशस्त मोह अर्थात् कि जो मोक्ष में ले जानेवाले हैं, उन पर मोह हो जाता है। वह हानिकारक नहीं है। वह तो मोक्ष दिलवा देगा। ज़रा देर लगेगी, परन्तु उससे क्या? वीतरागों पर मोह, वीतरागता लानेवाली वस्तुओं पर मोह, वह प्रशस्त मोह है।
जहाँ शंका हो, वहाँ सायक्लोन आता है! और मोक्ष के लिए तो संपूर्ण निःशंक होना पड़ेगा। आत्मा के लिए संपूर्ण नि:शंक होना पड़ेगा। और वह निःशंकता, जब 'ज्ञानी पुरुष' आत्मा का ज्ञान दे, तभी होती है! फिर नए कर्म चार्ज नहीं होते!