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चित्त को स्वरूप में ही रखना है, वेदना में या विनाशी वस्तु में नहीं। चित्त अविनाशी में रहा, तो वह हो गया शुद्ध। फिर वह विदेही हो गया! निज शक्ति स्वक्षेत्र में ही है। वह उत्पन्न हो गई कि काम हो गया।
आड़ाई (अहंकार का टेढ़ापन) किसे कहते हैं? खुद की भूल हो गई हो, उसका खुद को पता चल जाता है, फिर भी कोई पूछे कि, 'ऐसा क्यों किया', तो कहता है कि, 'ऐसा करने जैसा था', वह आड़ा कहलाता है। भूल के बारे में पता हो फिर भी ढके, वह सबसे बड़ी आड़ाई।
दो प्रकार के इनाम। लॉटरी लगे वह और जेब कटे वह भी, दोनों 'व्यवस्थित हैं।
जहाँ पर गच्छ-मत वाली वाणी नहीं है, केवळ आत्मा संबंधी ही वाणी है, वे ब्रह्मस्वरूप कहलाते हैं।
आत्मा अनंत हैं। मोक्ष में प्रत्येक आत्मा अलग-अलग ही है और निरंतर स्व-सुख में ही रहते हैं।
पूरा जीवन व्यवहार गलन (डिस्चार्ज होना, खाली होना) स्वरूप ही है और फिर 'व्यवस्थित' है। पाँचों ही इन्द्रियाँ उदयाधीन हैं।
कर्मबंध किससे है? 'मैं चंदूलाल हूँ' वह मान्यता ही कर्मबंध का मूल कारण है। बात को सिर्फ समझना ही है। यह विज्ञान है।
विचार आएँ, परेशान करनेवाले आएँ, उन्हें अलग रहकर देखते ही रहना है। विचार मन में से आते हैं। मन कहे, गाड़ी टकरा जाएगी तो? तब वहाँ उसे देखते ही रहना है और आराम से गाड़ी में बैठे रहना है, मन में तन्मयाकार नहीं हो जाना है। बहुत दुःख आ पड़े तो उसे कहना कि 'दादा के पास जा।'
संसार से बाहर नहीं निकलने दे, वह बुद्धि है। बुद्धि फायदानुकसान दिखाती है, जलन करवाती है। ज्ञानी के पास अंतरदाह हमेशा के लिए बंद हो जाता है ! सम्यक् बुद्धि हो, वहाँ पर गच्छ-मत कुछ भी नहीं होता! यह मेरा, यह आपका, ऐसे जुदाई नहीं होती!
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