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हाथ घुमाकर (खुद खुद को ही), आपका बहुत सिर दुःख रहा है? अभी कम हो जाएगा!' और वहाँ पर 'मुझे' दुःखा ऐसा लगा कि भूत लिपट जाएगा। डिक्शनरी बदल दो। अशाता सुखदायी और शाता दुःखदायी। 'ये सारे सुख-दुःख पड़ोसी को हैं' ऐसा समझो।
खुद अपने साथ, प्रकृति के साथ जुदापन का व्यवहार शुरू कर दो। खुद अपने आप से अलग रहकर उसके साथ बातें करना, क्षत्रिय की तरह, तो प्रकृति खत्म होती जाएगी। 'चंदूभाई' को दर्पण के सामने ले जाकर सिर पर हाथ फेरकर बाते करें, दिलासा दें।
ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप, इस प्रकार भगवान ने ऐसे मोक्ष के चार आधारस्तंभ बताए हैं। उणोदरी सबसे बड़ा बाह्यतप है, और मोक्ष के लिए अंतरतप की ज़रूरत है। अंतरतप अर्थात् भयंकर वेदना हो रही हो उस घड़ी 'हम' होम डिपार्टमेन्ट में ही रहें, स्व-परिणति में ही रहें। पर-परिणति उत्पन्न ही नहीं हो, वैसा तप करना है। ये पर-परिणाम हैं, ये मेरे परिणाम नहीं हैं, इस प्रकार स्व-परिणाम में मज़बूत रहे, वही तप! और उससे ही मोक्ष है ! वेदना को पराई जाने तो वैसा जानते ही रहोगे और 'मुझे हो रहा है' होते ही फिर उस वेदना का वेदन करते हो। और यह सहन नहीं होती' कहा कि वेदना फिर दस गुना लगती है। बोले, वैसा असर हो जाता है। वहाँ क्षत्रियता से काम लेना चाहिए।
आत्मा का स्वभाव कैसा है! जैसा चिंतन करता है वैसा ही तुरन्त हो जाता है! सुखमय चिंतन किया तो सुखमय हो जाता है और दुःखमय चिंतन किया तो दु:खमय हो जाता है ! इसलिए जागृत रहना कि दुःखमय चिंतन न हो जाए। ऐसा मत बोलना कि मेरा सिर दुःख रहा है। वहाँ तो ऐसा ही बोलना कि चंदूभाई का सिर दुःख रहा है ! पर-भाव में पर-परिणति उत्पन्न नहीं होनी चाहिए। पर-परिणाम को खुद के परिणाम माने, वही परपरिणति है।
ज्ञानियों को, तीर्थंकरों को भी अशाता वेदनीय होती है, परन्तु उसे वे जानते हैं, केवळज्ञान के द्वारा जानते हैं।
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