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________________ आप्तवाणी-५ १४७ दादाश्री : सिर्फ चित्त ही भटकता है। फिर शुद्ध हो जाए तब नहीं भटकता। अशुद्ध चित्त भटकता रहता है। अरे! मेहफिल में भी जा आता है कि जहाँ पर ब्रांडी की बोतलें उड़ती हों! चित्त की शक्तियाँ बहुत ज़बरदस्त है। इसलिए ही लोग ऊब जाते हैं न! यह मन लोगों को इतना अधिक परेशान नहीं करता, परन्तु चित्त बहुत परेशान करता है। मन तो दो काम करता है, एक तो अच्छे विचार फूटते हैं और एक खराब विचार फूटते हैं ! पटाखों और अनार में से फूटते हैं, वैसे। विचार वह ज्ञेय वस्तु है और 'हम' 'ज्ञाता' हैं। यह तो भ्रांति के कारण ऐसा लगता है कि मुझे विचार आए। दादाश्री - कली को खिलाते हैं दादाश्री : ये उल्टे-सीधे धंधे अब करेगा? जानवर बनना है तुझे? प्रश्नकर्ता : नहीं। दादाश्री : इन दो पैरों से गिर जाते हैं, तो उसके बदले चार पैर हों तो अच्छा, गिर तो नहीं जाएँगे! और ऊपर से पूँछ इनाम में मिलेगी तो कूदते-कूदते तो जा पाएगा!!! अब तुझे ऐसा कुछ बनना है या मनुष्य ही बनना है? प्रश्नकर्ता : मनुष्य बनना है। दादाश्री : तो फिर मनुष्य के गुणों की ज़रूरत पड़ेगी। जैसा तुझे पसंद है, वैसा ही सामनेवाले को देगा तो मनुष्यत्व आएगा। कोई तुझे नालायक कहे, तो तुझे पसंद आएगा? प्रश्नकर्ता : नहीं आएगा। दादाश्री : इसलिए हमें समझ जाना है कि हम किसीको नालायक कहें तो उसे कैसे पसंद आएगा? अर्थात् हमें ऐसा कहना है कि आओ भाई, आप बहुत अच्छे व्यक्ति हो, तब उसे आनंद होगा। कोई हमारे पास झूठ बोले तो हमें दुःख हो जाता है, उसी प्रकार
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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